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________________ जैन श्रमण-परम्परा का धर्म-दर्शन पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री संस्कृत-साहित्य में जिसे 'श्रमण' पद से अभिहित किया गया है,' मूल में वह 'समण' संज्ञापद है, उसके संस्कृत छायारूप तीन होते हैं ..... शमन, श्रमण और समन ! श्रमणों ---जैन साधुओं की चर्या इन तीनों विशेषताओं को लिये होती है। जिन्होंने पञ्चेन्द्रियों को संवृत कर लिया है, कषायों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो शत्रु-मित्र, दुःख-सुख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी-सोना तथा जीवन-मरण में समभावसंपन्न हैं, और जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना में निरंतर तत्पर हैं, वे श्रमण हैं और उनका धर्म ही श्रमण धर्म है। वर्तमान में जिसे हम जैन धर्म या आत्मधर्म के नाम से संबोधित करते हैं, वह यही है । यह अखण्ड भाव से श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है । ___ लोक में जितने भी धर्म प्रचलित हैं उनका लिखित या अलिखित दर्शन अवश्य होता है। इसका भी अपना दर्शन है जिसके द्वारा श्रमण धर्म की नींव के रूप में व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की अक्षुण्ण भाव से प्रतिष्ठा की गयी है। इसे समझने के लिए इसमें प्रतिपादित तत्त्व-प्ररूपणा को हृदयंगम कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। जैसा कि समग्र आगम पर दृष्टिपात करने से विदित होता है, इसमें तत्त्व-प्ररूपणा के दो प्रकार परिलक्षित होते हैं ---एक लोक की संरचना के रूप में तत्त्व-प्ररूपणा का प्रकार, और दूसरा मोक्ष-मार्ग की दृष्टि से तत्त्व-प्ररूपणा का प्रकार । ये दोनों ही प्रकार एक-दूसरे के इतने निकट हैं जिससे इन्हें जुदा नहीं किया जा सकता, केवल प्रयोजन-भेद से ही तत्त्व-प्ररूपणा को दो भागों में विभक्त किया गया है ।। प्रथम प्ररूपणा के अनुसार जाति की अपेक्षा द्रव्य छह हैं । वे अनादि, अनन्त और अकृत्रिम हैं। उन्हीं के समुच्चय का नाम 'लोक' है। इसलिए जैन दर्शन में लोक भी स्वप्रतिष्ठ और अनादि-अनंत है। छह द्रव्यों के नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश । इनमें काल द्रव्य सत्स्वरूप होकर भी शरीर के प्रमाण बहु-प्रदेशीय नहीं है। इसलिए उसे छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं । पुद्गल द्रव्य शक्ति या योग्यता की अपेक्षा बहुप्रदेशीय है। संख्या की दृष्टि से जीव-द्रव्य अनंत हैं, पुद्गल-द्रव्य उनसे अनंतगुणे हैं; धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं और काल-द्रव्य असंख्य हैं। ये सब द्रव्य स्वरूप-सत्ता की अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी इन सबमें घटित हो ऐसा इनका एक सामान्य लक्षण है, जिस कारण ये सब 'द्रव्य' पद द्वारा अभिहित किये गये हैं। वह है-"उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । सद् द्रव्यलक्षणम् ।"५ जो सत्स्वरूप हो वह द्रव्य है, या सत्स्वरूप होना द्रव्य का लक्षण है। यहां सत् और द्रव्य में लक्ष्य और लक्षण की अपेक्षा भेद स्वीकार करने पर भी वे सर्वथा दो नहीं हैं, एक हैं-चाहे सत् कहो या द्रव्य, दोनों का अर्थ एक है। इसी कारण जैन दर्शन में अभाव को सर्वथा अभाव-रूप में स्वीकार करके भी उसे भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया गया है। नियम यह है कि सत् का कभी नाश नहीं होता, और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता। ऐसा होते हुए भी वह सत् सर्वथा कूटस्थ नहीं है --क्रियाशील है । यही कारण है कि प्रकृत में सत् को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप में त्रयात्मक स्वीकार किया गया है। १. येषां च विरोधः शाश्वतिकः, इत्यस्यावकाश: श्रमणब्राह्मणम् । पातंजल भाष्य, २/४/8 २. प्रवचनसार, गा० ३/२६. ३. पाइयसद्दमहण्णवो (कोश), समण शब्द, पृ० १०८३ : ४. प्रवचनसार, गा० ३/४०-४२ ५. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२६-३० ६. भवत्यभावोऽपि हि वस्तुधर्मः । युक्त्यनुशासन -५६ ७. प्रवचनसार, गा०२/८-१२ ३० आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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