SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वस्तुतः, निर्विकार वीतराग सहज दिगम्बर छवि का दर्शन करने से तो स्वयं दर्शक के मनोविकार शान्त हो जाते हैं, अब चाहे वह मुद्रा किसी सच्चे सजीव साधु-महात्मा की हो अथवा पाषाण-आदि से निर्मित जिन-प्रतिमा,वीतराग-सर्वज्ञ-हितकर अहंत परमात्मा की प्रतिमा हो। भक्तहृदय तो उस मुद्रा के सम्मुख नत होता है, उसकी उक्त परम वीतराग प्रशान्त मुद्रा में स्वयं अपनी आत्मा के निर्मलत्व को पहचानने का प्रयास करता है, प्रेरणा लेता है और समता एवं वीतराग-भाव की साधना करता है, उन्हें यथाशक्य अपने जीवन में उतारने के लिए प्रयत्नशील रहता है। निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थकर भगवानों द्वारा स्वय आचरित एवं उपदेशित मार्ग का अनुसरण करने वाले उच्च कोटि के महाव्रती आत्मसाधक दिगम्बर मुनियों का सद्भाव प्रायः सदैव रहता आया है । अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु (ई० पू० ४ थी शती के मध्य ) के समय तक तो मार्ग एकरस बना ही रहा, उसके दो-तीन दशक बाद के, नन्द-मौर्यकालीन यूनानी लेखकों ने भारतवर्ष के वनवासी निस्पृह दिगम्बर मुनियों के वर्णन किये हैं, जिन्हें वे जिम्नोसोफिस्ट या जिम्नेताई कहते थे। मौर्यकाल के अन्त (लगभग ई० पू० २००)से ही मथुरा आदि कई प्राचीन स्थानों में दिगम्बर जैन मुनियों के प्रस्तरांकन भी मिलने लगते हैं । युवान च्वांग आदि प्राचीन चीनी यात्रियों ने भी देश के विभिन्न भागों में विचरते दिगम्बर (लि-हि) साधुओं या निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया है। सुलेमान आदि अरब सौदागरों और मध्यकालीन यूरोपीय पर्यटकों में से भी कई एक ने उनकी विद्यमानता के संकेत किए हैं। डॉ० हेनरिख जिम्मर जैसे कई प्रकाण्ड मनीषियों एवं प्राच्यविदों का मत है कि प्राचीन काल में जैन मुनि सर्वथा दिगम्बर ही रहते थे। इसमें सन्देह नहीं है कि दिगम्बरत्व की सम्यक् साधना सरल नहीं है—अतीव कठोर तप है, हर किसी के बूते का काम नहीं है। किन्तु उसका लक्ष्य भी तो परम प्राप्तव्य की उपलब्धि है । जितना ऊंचा लक्ष्य है, वैसी ही उच्च साधना अपेक्षित है । परम सिद्धि का चरम सोपान भीतर एवं बाहर का पूर्ण दिगम्बरत्व ही हो सकता है। 'साध्नोतीति साधुः'- जो साधना करता है वही साधु है। णिम्भूसणं णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पुज्जं । (मूलाचार, १/३२) गोलमेज परिषद के वक्त जब गांधीजी इंग्लैण्ड में थे तो वह अपरिग्रह पर भाषण देने गिल्डहाउस आए थे। हाल खचाखच भरा हुआ था और सैकड़ों लोग बाहर खड़े थे। हम बड़े ध्यान से यह सुन रहे थे कि एक ऐसे व्यक्ति का, जो अपरिग्रह के बारे में बातें-ही-बातें नहीं करता था, बल्कि जिसे उसका यथार्थ अनुभव भी था, कहना क्या है ? अन्त में बहुत से सवाल किए गए। कभी-कभी महात्मा को उत्तर देने से पहले रुकना पड़ता था। बाद में मुझे मालूम हुआ कि वह सिर्फ इसलिए रुकते थे कि वह मानवीय भाषा में, अधिक-से-अधिक जितना सही और पूर्णतया सच्चा जवाब हो सके, दें। उनका यह कथन मुझे याद है, “परिग्रह का त्याग पहले-पहल शरीर से वस्त्र उतार देने जैसा नहीं, बल्कि हड्डी से मांस ही अलग करने जैसा लगता है ।" आगे उन्होंने कहा था"अगर आप मुझसे कहें कि 'लेकिन भाई गांधी, तुम तो एक सूती कपड़े का टुकड़ा पहने हुए हो। फिर कैसे कह सकते हो कि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है ?' तो मेरा उत्तर यह होगा कि 'जब तक मेरा शरीर है, मेरे खयाल से मुझे उस पर कुछ-न-कुछ लपेटना ही पड़ेगा। मगर' - अपनी मोहिनी मुस्कराहट के साथ उन्होंने आगे कहा'यहां कोई चाहे तो इसे भी मुझसे ले सकता है, मैं पुलिस को बुलाने नहीं जाऊंगा।' -मॉय रॉयडन (गांधी अभिनन्दन ग्रन्थ से साभार) जैन धम एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy