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अपने अन्वय-स्वभाव के कारण जहां वह ध्र व है, वहीं व्यतिरेक पर्यायरूप धर्म के कारण वही उत्पाद-व्यय स्वरूप है।' इन तीनों में कालभेद नहीं है। जिसे हम नवीन पर्याय का उत्पाद कहते हैं, यद्यपि वही पूर्व पर्याय का व्यय है, पर इनमें लक्षण-भेद होने से ये दो स्वीकार किये गये हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य एक ही काल में त्रयात्मक है, यह सिद्ध होता है ।
इस त्रयात्मक द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही उसके अंश सत् हैं। इनमें कथंचित् अभेद है क्योंकि तीनों की सत्ता एक है । जो तीनों में से किसी एक की सत्ता है वही अन्य दो की है। यह द्रव्य का सामान्य आत्मभूत लक्षण है। इससे प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है-यह सिद्ध होता है, क्योंकि समय-समय जो उत्पाद-व्यय होता है वह उसका परिणामीपना है, और ऐसा होते हुए में वह अपने ध्रुवरूप मूल स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता, उसके द्वारा वह सदा ही उत्पाद-व्यय रूप परिणाम को व्यापता रहता है--यह उसकी नित्यता है । आगम में प्रत्येक द्रव्य को जो अनेकान्त-स्वरूप कहा गया है, उसका भी यही कारण है।
द्रव्य में उत्पाद-व्यय ये कार्य हैं । वे कैसे होते हैं, यह प्रश्न है-स्वयं या पर से ? किसी एक पक्ष को स्वीकार करने पर एकान्त का दोष आता है, उभयतः स्वीकार करने पर जीव का मोक्ष स्वरूप से अर्थात् परमार्थ से कथंचित् स्वाश्रित है और कथंचित् पराश्रित है, ऐसा मानना पड़ता है।
समाधान यह है कि किसी भी द्रव्य को अन्य कोई बनाता नहीं है, वह स्वयं होता है । अत: उत्पाद-व्यय रूप कार्य को प्रत्येक द्रव्य स्वयं करता है---यह सिद्ध होता है। वही स्वयं कर्ता है, और वही स्वयं कर्म है । करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण भी वही स्वयं है। अविनाभाव सम्बन्धवश उसकी सिद्धि मात्र 'पर' से होती है, इसलिए उसे कार्य का उपचार से साधक कहा जाता है। पर ने किया, यह व्यवहार है, परमार्थ नहीं; क्योंकि पर ने किया, इसे परमार्थ मानने पर दो द्रव्यों में एकत्व की उत्पत्ति आती है जो युक्ति-युक्त नहीं है। अतः प्रकृत में अनेकांत इस प्रकार घटित होता है।
उत्पाद-व्यय कथंचित् स्वयं होते हैं क्योंकि वे द्रव्य के स्वरूप हैं । कथंचित् पर से होने का भी व्यवहार है, क्योंकि अविनाभाव सम्बन्धवश 'पर' उनकी सिद्धि में निमित्त है।'
जैन धर्म में प्रत्येक द्रव्य को स्वरूप से जो स्वाश्रित (स्वाधीन) माना गया है, उसका कारण भी यही है। जीव ने पर में एकत्वबुद्धि करके अपने अपराध-वश अपना भव-भ्रमणरूप राग-द्वेष-मोह स्वरूप संसार स्वयं बनाया है। कर्म-रूप पुद्गल-द्रव्य का परिणाम उसके अज्ञानादि-रूप संसार का परमार्थ-कर्ता नहीं होता। पर पर को करे, ऐसा वस्तु-स्वभाव नहीं है। आत्मा स्वयं अज्ञानादि-रूप परिणाम को जन्म देता है, इसलिए वह स्वयं उसका कर्ता होता है। फिर भी इसके जो ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल-कर्म का बन्ध होता है, उस सम्बन्ध में नियम यह है कि प्रति समय जैसे ही यह जीव स्वरूप से भिन्न पर में एकत्वबुद्धि या इष्टानिष्टबुद्धि करता है, वैसे ही ज्ञानावरणादि-रूप परिणमन की योग्यता वाले पुद्गल-स्कंध स्वयं उससे एकक्षेत्रावगाह रूप बंध को प्राप्त होकर फल-काल के प्राप्त होने पर तदनुरूप फल देने में निमित्त होते हैं। जीव-कर्म का यह बन्ध अनादि-काल से निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धवश स्वयं बना चला आ रहा है । वह इसके अनादिपन में निमित्त नहीं होता।
पहले हम जिन छह द्रव्यों का निर्देश कर आये हैं उनमें से चार द्रव्य तो सदा अपने स्वभाव के अनुकूल ही कार्य को जन्म देते हैं । शेष जो जीव और पुद्गल दो द्रव्य हैं, उनमें से पुद्गल का स्वभाव तो ऐसा है कि यह कदाचित् मूल स्वभाव में रहते हुए भी बंध के अनुकूल अवस्था के होने पर दूसरे पुद्गल के साथ नियमानुसार बंध को प्राप्त हो जाता है, और जब तक वह इस अवस्था में रहता है, तब तक अपने इकाईपने से विमुख होकर स्कंध संज्ञा से व्यवहृत होता रहता है।
इसके अतिरिक्त जो जीव है, उसका स्वभाव ऐसा नहीं है कि वह स्वभाव से स्वयं को कर्म से आबद्ध कर दुर्गति का पात्र बने। अनादि से वह स्वयं को भूला हुआ है । उसकी इस भूल का ही परिणाम है कि वह दुर्गति का पात्र बना चला आ रहा है। उसे स्वयं में यही अनुभव करना है और उसके मूल कारण के रूप में अपने अज्ञान-भाव और राग-द्वेष को जानकर उनसे मुक्त होने का उपाय करना है। यही बह मुख्य प्रयोजन है जिसे ध्यान में रखकर जिनागम में तत्त्व-प्ररूपणा का दूसरा प्रकार परिलक्षित होता है।
आत्मानुभूति, आत्मज्ञान और आत्मचर्या-इन तीनों रूप-परिणत आत्मा स्वयं ही मोक्ष-मार्ग है। उनमें सम्यग्दर्शन मूल है। 'दंसणमूलो धम्मो,'_-इसी प्रयोजन से जीवादि नौ पदार्थ या सात तत्त्व कहे गए हैं । इनमें आत्मा मुख्य है। विश्लेषण द्वारा उसके मूल १. सर्वार्थसिद्धि, ५/३० २. प्रवचनसार, गा०२/१० ३. आप्तमीमांसा, का०५८ ४. वही, का० ७५ ५. समयसार, गा०१३ ६. तत्त्वार्थसूत्र, १/४
जैन धर्म एवं आचार
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