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सागार व अनगार धर्म
धर्म या चारित्र के अधिकारी-भेद से भी दो भेद किए गए हैं - ( १ ) सागार (गृहस्थ ) धर्म (२) अनगार ( मुनि) धर्मं । अनगार मुनि हिंसादि पापों का यावज्जीवन सर्वथा त्यागी व सकल चारित्र का आराधक होता है, किन्तु सागार या गृहस्थ ( या उपासक ) देशचारित्री - पाँच पापों का एकदेश (आंशिक) त्यागी होता है ।
गृहस्थ धर्म गृहस्थ के लिए पांच अतों या अष्ट मूल-गुणों (पांच अणुव्रत तथा तीन मकार-त्याग) का पालन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त साधक के लिए सप्त जीवों (तीन गुणवतों तथा चार मिज्ञातों का पालन अपेक्षित है। तीन पत हैं(१) दिव्रत ( सावद्य क्रियाओं के क्षेत्र को सीमित करने के उद्देश्य से अपने गमनागमन के क्षेत्र की मर्यादा बांधना ) । (२) देशव्रत (मर्यादित क्षेत्र में भी स्थान - विशेष की मर्यादा बांधना ) (३) अनर्थदण्डविरति ( सावद्य कार्यों को निष्प्रयोजन न करने का विधान ) । चार शिक्षाव्रत हैं - ( १ ) सामायिक ( विषयादि निवृत्ति व रागद्वेष त्यागपूर्वक, नियत काल तक समस्त पदार्थों में साम्य भाव का आलम्बन एवं आत्मद्रव्य की लीनता (समाधि का अभ्यास) । (२) प्रोपोपवास (पर्व - दिनों अष्टमी व चतुर्दशी के दिनों में अशनादि चतुविध आहार का त्याग एवं धर्म-कार्य में समय-यापन) (३) भोगोपभोग परिमाण (भोगोरोगों के साधनों की संख्या परिमाण को मर्यादित करना) । (४) अतिथि संविभाग ( अतिथि, विशेषतः साधु को आहारादि दान) । किन्हीं आचार्यों के मत में सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में परिगणित किया गया है । सल्लेखना में सब प्रकार की मोहममता को दूर कर शुद्ध आत्मस्वरूप के चिन्तन में लीन रहने - का अभ्यास करते हुए कषाय व शरीर को कृश करते हुए, मृत्यु को अंगीकार करना होता है । कुछ आचार्यों के मत में अतिथि-पूजा, देशावकाशिक, वैयावृत्त्य, भोगोपभोग परिमाण, दान — इन्हें भी शिक्षाव्रतों की श्रेणी में रखा गया है। गुगवतों से अगुव्रतों का उपकार होता है, वहाँ शिक्षाव्रतों से मुनिपद की शिक्षा (प्राथमिक पूर्वाभ्यास ) मिलती है ।
जैन शास्त्रों में गृहस्थोचित सामान्य कर्तव्यों के रूप में सप्तव्यसन त्याग (द्यूत, मांस, मद्य, वेश्या, पर-स्त्री - इनका सेवन न करना, साथ ही चोरी व शिकार का त्याग ), आवश्यक षट् कर्म (देवपूजा, गुरुपूजा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान) आदि कार्यों का भी विधान किया गया है। रयणसार में श्रावकोचित तिरपन (५३) क्रियाओं का निरूपण है । सामान्य जैन श्रावक भी भावनात्मक रूप से समस्त संसार का शुभाकांक्षी तथा प्रियभाषी व सन्तोषी होता है । दैनिक प्रार्थना में वह प्राणियों से मैत्रीभाव की कामना करता है तथा देश व राष्ट्र में सुख- -शान्ति की अभिलाषा प्रकट करता है ।
व्रती श्रावक की धार्मिक साधना के क्रमिक सोपान को ( रागादिक्षय के तारतम्य के अनुसार) ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में वर्णित किया गया है। प्रतिमाधारी श्रावक की 'नैष्ठिक श्रावक' संज्ञा है । प्रतिमा-धारण से पहले वह 'पाक्षिक श्रावक' कहलाता है । ग्यारह प्रतिमा का धर्म तथा पाक्षिक श्रावक का धर्म - इस प्रकार श्रावक धर्म के बारह भेद भी प्रतिपादित किए गए हैं।
दसवीं व ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक 'उत्तम श्रावक' होता है जो सभी प्रकार के सावद्य कर्मों में या लौकिक कार्यों में किसी प्रकार की अनुमोदना से भी पूर्णतः विरत होता हुआ, अन्त में गृह त्याग कर भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन तथा अलतम वस्त्र धारण करता है । एक ही वस्त्र का धारक 'क्षुल्लक', तथा केवल लंगोटी का धारक 'ऐलक' कहा जाता है। सातवीं, आठवीं, नवीं प्रतिमा का धारक 'मध्यम श्रावक' होता है जो 'वर्णी' या 'ब्रह्मचारी' नाम से भी पुकारा जाता है। उक्त श्रावक स्वपत्नी सहवास का त्यागी, हिसा व परिग्रह से विरक्त होता है। इससे नीचे की प्रतिमाओं में 'जघन्य श्रावक' होता है, जो भूमिकानुसार निर्दिष्ट व्रतों का नियमित पालन करता है । इन प्रतिमाओं के नाम हैं - दर्शन, व्रत, सामयिक, प्रोषध, सचितत्याग, रात्रिभोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रहत्याग, अनुमति त्याग, उद्दिष्ट त्याग । जीवन के अन्त में सल्लेखना -वृत्ति को अंगीकार करने वाला 'साधक श्रावक' कहलाता है। साधना के मार्ग को कई सोपानों में बांटा गया है। इन सोपानों को 'गुणस्थान' कहा जाता है जिनकी संख्या १४ है । व्रती या प्रतिमाधारी श्रावक की स्थिति पांच गुणस्थान में मानी गई है।
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अनवार धर्म-वस्तुतः अनगार-धर्म ही जैन धावक के लिए प्रमुखतः आवरणीय व उपदेष्टव्य है जो इस अनगार-धर्म को पालन करने में अशक्त है किन्तु भविष्य में मुनि-पद प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है, उसके लिए ही गृहस्थ धर्म का उपदेश कहा गया है । अनगार-धर्म ही मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् कारण है ।
मुनि के लिए ज्ञान, संयम व वैराग्य से सम्पन्न होना जरूरी है। बिना वीरता के कोई सुभट, तथा बिना सुहाग-चिह्न के कोई 'स्त्री सुशोभित नहीं होती, वैसे ज्ञान व संयम के बिना मुनि शोभित नहीं होता। मुनियों के लिए २८ मूलगुणों का पालन अपेक्षित माना
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सत्य, अहिंसा, अचौर्य ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह - इनका आंशिक पालन पांच अणुव्रत हैं । मद्यत्याग, मधुत्याग, मांसत्याग – ये तीन मकारों का त्याग है । किन्हीं आचार्यों के मत में देवदर्शन, दया, जल-गालन (जल छानकर पीना), रात्रि भोजन त्याग, पांच उदुम्बर फलों के स्थान को अष्ट मूलगुणों में परियनित किया गया है।
जैन धर्म एवं आचार
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