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________________ गया है । पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रिय-निरोध, छ: आवश्यक, केशलोच, अचेलक्य (निर्वस्त्रता), अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन (खड़े होकर कर-पात्र भोजन), एक भक्त (दिन में एक बार भोजन)- ये अठाईस मूलगुण हैं। मूलगुणों के अनुरूप साधु के उत्तर गुणों का भी निरूपण शास्त्रों में किया गया है जिनकी संख्या चौरासी लाख तक बताई गई है। हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह-इन पांचों का पूर्णतः त्याग पांच महाव्रत हैं। गमनागमन, भाषण, एषणा (भोजन ग्रहण), उपकरणों का रखना-उठाना, उत्सर्ग (मूत्र-मलादि विसर्जन)-इन कार्यों को शास्त्रोक्त दोषरहित रीति से संयमपूर्वक करना—ये पांच समितियां हैं। सामायिक (त्रिकाल देववन्दना व नियत काल तक समता भाव का धारण), अहंदादि-स्तुति, अहंदादि-वन्दना, प्रतिक्रमण (व्रतों में उत्पन्न दोषों का निन्दापूर्वक शोधन) ,प्रत्याख्यान (मन-वचन-काया से भावी दोषों का त्याग), कायोत्सर्ग (शरीर से नियत काल तक ममत्व का त्याग)—ये छ: आवश्यक क्रियाएं हैं। पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति- इन तेरह (चरण) कर्तव्यों को भी मुनि धर्म के रूप में निरूपित किया गया है। मन, वचन व शरीर को असत् व्यापारों से निवृत्त करना या परिमित काल पर्यन्त सर्वयोगों का निग्रह करना 'गुप्ति' है। गुप्ति में असमर्थ व्यक्ति की स्थिति में या कायादि प्रवृत्ति में अहिंसादि दोष न लगे-ऐसी सम्यक् प्रवृत्ति करना, या प्रमाद न होने देना 'समिति है। 'समिति' असंयम रूप परिणामों से होने वाले कमों के आस्रव को रोक देती है। 'गुप्ति' के कारण आत्मा का रत्नत्रय अपने प्रतिपक्षी मिथ्यात्वादि भावों से सुरक्षित रहता है। कर्मों से मुक्ति पाने की प्रक्रिया में नये कर्मों के आगमन को रोकना (संवर), तथा गृहीत कर्मों की निर्जरा (एकदेश क्षय)दोनों जरूरी हैं । संवर व निर्जरा के लिए 'श्रमणोचित धर्म' को सशक्त कारणों में परिगणित किया गया है, और इसके दश भेद भी जैन शास्त्रों में प्रतिपादित किये गए हैं-(१) उत्तम क्षमा, (२) उत्तम मार्दव, (३) उत्तम आर्जव, (४) उत्तम शौच, (५) उत्तम सत्य, (६) उत्तम संयम, (७) उत्तम तप, (८) उत्तम त्याग, (8) उत्तम आकिञ्चन्य, (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य। ये दशविध धर्म मुख्यतः साधुओं (अनगार) के लिए कहे गए हैं, किन्तु श्रावकों को भी यथाशक्ति इनका परिपालन करना अपेक्षित बताया गया है। उक्त दशविध धर्मों के परिपालक साधक के पाप-प्रकृतियों का क्षय होता है, तथा प्रशस्त राग के सद्भाव से पुण्य-प्रकृतियों की उत्पत्ति होती है, यद्यपि साधक पुण्य-बन्ध का इच्छुक नहीं होता। जिस सम्यक् चारित्र की चर्चा ऊपर की गई है, उसे 'संयम' धर्म में समाविष्ट समझना चाहिए। दशविध धर्मों में परिगणित उक्त 'संयम धर्म' विशिष्ट चारित्र रूप में साधक को मोक्ष तक पहुंचाने में समर्थ है। 'चारित्र' के ५ भेद शास्त्रों में वर्णित हैं जो मोक्ष-साधना से सम्बद्ध विविध भूमिकाओं को भी इंगित करते हैं। वे भेद हैं-(१) सामायिक, (२) छेदोपस्थापना, (३) परिहार विशुद्धि, (४) सूक्ष्म साम्पराय, (५) यथाख्यात । सर्वदा के लिए, या नियत काल के लिए सर्वसावद्य कर्मों का त्याग-'सामायिक चारित्र' है। प्रमादादि के कारण व्रतभंग होने पर, प्रायश्चित्त-पूर्वक पुनः व्रत का धारण 'छेदोपस्थापना चारित्र' है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य–इत्यादि व्रतों का पृथक्-पृथक रूप से (भेद-विकल्प के साथ) धारण भी 'छेदोपस्थापना चारित्र' है। विशिष्ट शारीरिक साधना तथा शास्त्राध्ययन द्वारा जिस साधक को इतना अभ्यास हो गया है कि आचरण में कहीं भी जीवहिंसा न हो पाए, उस साधक की चारित्रिक विशुद्धि 'परिहार विशुद्धि चारित्र' कहलाती है । समस्त कषायों के उपशान्त या क्षीण होने पर, मात्र सूक्ष्म लोभ का सद्भाव रहे, ऐसी स्थिति में 'सूक्ष्म साम्पराय चारित्र' कहा जाता है। चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय होने पर 'यथास्यात चारित्र' कहा जाता है। यहां पर उल्लेखनीय है कि दिगम्बर-परम्परा का उक्त उत्तम 'धर्म' इस पंचमकाल में भी उच्छिन्न नहीं हुआ है। आज भी निर्दोष मुनि-चर्या वाले साधु अवश्य हैं। परमपूज्य चारित्र-चक्रवर्ती डॉ० श्री शान्तिसागर जी महाराज की उत्तम साधु परम्परा में वर्तमान में परम पूज्य आचार्यरत्न १०८ श्री देशभूषण जी महाराज पूरे भारत में धर्म-प्रभावना हेतु विचरण कर रहे हैं। उन्हीं के सुयोग्यतम प्रसिद्ध शिष्य पूज्य एलाचार्य सिद्धान्त-चक्रवर्ती उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज भी एक विशिष्ट धर्म-प्रभावक तथा अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी व अध्यात्मयोगी के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। हम सब की यह कामना स्वाभाविक है कि पूज्य आचार्य श्री दीर्घजीवी हों और हम सब को उत्तम धर्म व सदाचार की शिक्षा उनसे ग्रहण करते रहने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे और हम सद्गति की दिशा में बढ़ते रहें। उपाचार्य (रीडर) व अध्यक्ष, डॉ. दामोदर शास्त्री जैन दर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, शिक्षा मन्त्रालय, भारत सरकार, कटवारिया सराय, नई दिल्ली-११००१६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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