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________________ उर्दू भाषा में जैन साहित्य -डॉ. निजामउद्दीन भारत में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों को मानने वाले लोग रहते हैं और विभिन्न भाषाओं में धार्मिक साहित्य की रचना इन लोगों ने की है । जैन साहित्य अर्द्धमागधी या प्राकृन में ही नहीं रचा गया, वरन् भारत की अन्य भाषाओं में भी इसकी रचना की गई है। गुजराती, बंगला, पंजाबी, कश्मीरी, उर्दू आदि भाषाओं में जैन साहित्य देखा जा सकता है। यहाँ केवल उर्दू भाषा में विरचित जैन साहित्य का विवरण प्रस्तुत है। लाला सुमेरचन्द जैन ने “जैन मत सार" नाम से सन् १९३८ में ३९२ पृष्ठों की पुस्तक लिखी जो जैन मित्र मण्डल, दिल्ली से प्रकाशित की गई । उर्दू में लिखने का कारण उन्होंने पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट किया है : पहले धर्मग्रन्थ प्राकृत व संस्कृत में रचे गये, और अब उन भाषाओं का प्रचलन नहीं। १८ वीं शताब्दी में (विक्र०) जैनमत के विद्वान टोडरमल जी, सदासुख जी, दौलतराम जी ने वर्तमान भाषाओं में अनुवाद किया जिनसे बहुत से लोग लाभान्वित हुए। धर्म की भावना को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रचलित भाषा में ही लिखा जाय। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने यह भी लिखा कि "जैनप्रकाश' (१९१४), "शाहराहे निजात" (१९०६) और "धर्म के दस लक्षण" (१९११) शीर्षक से उर्दू भाषा में लिखी गई पुस्तकें-पुस्तिकाएं हैं। लाला सुमेरचन्द जैन ने जैनधर्म का विवेचन करते हुए कहा है--"जैनमत दो लफ्जों 'जिन' और 'मत' से मुरक्कब (संयुक्त) ऐसा शख्स जिसने राग द्वेष को जीत लिया, या यूं कहो कि जिसकी न किसी से दोस्ती है न दुश्मनी, जो न किसी मरगूब तबा (रुचिकर, मनोहर) दुनियावी शै (वस्तु) के हासिल करने की रगबत रखता है और नागवार तब शै (अरुचिकर वस्तु) को दूर करने की ख्वाहिश । ऐसे शख्स के लिए दुनिया में कोई शै मरगूब या गैरमागूब नहीं है, वह हर शै को उसकी असलियत के लिहाज से देखता और जानता है और 'जिन' कहलाता है। जिनमत के मानी हैं ऐसे शख्स की राय जिसमें न तो अज्ञान है और न वह किसी से दोस्ती व दुश्मनी के जजबात (भावना) से मरऊब (प्रभावित) है।" "जिनमत को ही आम गुफ्तगू में जैन मत कहते हैं । लफ्ज "जैन" का अर्थ "जिन" में एतकाद (विश्वास) रखने वाला शख्स है। जैनमत शै (वस्तु) के हर पहलू पर गौर करने की वजह से “एकान्त मत" कहलाता है। दीगर तमाम मजहब के ख्यालात इसमें मुश्तमिल (शामिल) हैं, इसलिए यही मजहब यूनिवर्सल मजहब हो सकता है। 'सनातन जैन दर्शन प्रकाश' की रचना लाला सोहन लाल जैन ने की। यह पुस्तक प्रश्नोत्तर रूप में है। पहले श्लोक फिर उर्दू में अनुवाद, बाद में उसका स्पष्टीकरण दिया गया है। अरबी-फारसी शब्दों का खूब प्रयोग किया गया है। उर्दू में लिखने का कारण उन्हीं के शब्दों में पढ़िए- “कई बरसों से मेरे मित्र व दीगर अहबाब ने मुझको बराँगेख्ता (भड़काया) किया कि जैन धर्म में कोई कुछ कहता है और कुछ समझता है । अगर इस बारे में तुम एक किताब बना दो तो बहुत अच्छा होगा क्योंकि सज्जन तो गुन के ग्राही और सत् के मुतलाशी होते हैं । सो वे तो जरूर ही इस सत् धर्म को पाकर नेकनियती और नेक एमाल (शुद्ध कर्म) से अपने जन्म को सफल करेंगे। ...."मगर आजकल उर्दू की ज्यादातर परवरती हो रही है, देवनागरी से तो बहुत थोड़े वाकिफ हैं ज्यादा नहीं। इसलिए किताब उर्दू में ही तहरीर (लिखी) हो तो बहुत अच्छा होगा ।" रावलपिण्डी (पाकिस्तान) से सन् १९०३ में लाला केवड़ामल ने “जैन रतन माला" नामक १२ पृष्ठों की प्रश्नोत्तर रूप में एक पुस्तिका लिखी। इसमें संस्कृत के अतिरिक्त अरबी-फारसी के शब्दों का अच्छा प्रयोग किया गया है। यहां इस पुस्तक का कुछ अंश पांचवें अध्याय से उद्धृत किया जाता है "प्रश्न-जैनधर्म में ईश्वर की निसबत (विषय) में क्या ख्याल है ? उत्तर-हम निजात शुदा (मुक्तात्मा) को ईश्वर मानते हैं। प्रश्न-अगर मानते हो तो ईश्वर को किस रूप से मानते हो? १८६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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