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________________ इन सभी स्थानों में स्थित अभिलेखों में तमिलनाडु के जैन इतिहास का विशद वर्णन प्राप्त है। काल को पांच श्रेणी में विभाजित किया गया है १. ई. पूर्व तीसरी शताब्दी व उसके पूर्व २. ई० पूर्व दूसरी व पहली शताब्दी : प्रथम काल ३. ईस्वी पहली और दूसरी शताब्दी : मध्यम काल ४. ईस्वी तीसरी और चौथी शताब्दी : अंतिम काल ५. ईस्वी पांचवी शताब्दी के बाद का काल स्थान और अभिलेखों की संख्या निम्न प्रकार है :ई० पू० पहली शताब्दी व दूसरी शताब्दी १२ स्थान ५० अभिलेख ईस्वी पहली व दूसरी शताब्दी ३ स्थान ५ अभिलेख ईस्वी तीसरी व चौथी शताब्दी ५ स्थान १६ अभिलेख ईस्वी पांचवीं व छठी शताब्दी २ स्थान २ अभिलेख २२ ७६ इन बाईस स्थानों में से प्राप्त ७६ अभिलेखों में ५० अभिलेख ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी के हैं। ये सभी अभिलेख जैनधर्म एवं आचार्यों से सम्बन्धित हैं। ऐतिहासिक काल के पूर्व में स्थित नरेशों के समय, उनकी गतिविधि, अभिलेख आदि की अन्वेषणपूर्ण विचारधारा से यह पता चलता है कि तमिलनाडु में जैनधर्म का अस्तित्व ईस्वी पूर्व पांचवीं शताब्दी के पूर्व से ही था। जन आचार्यों को साहित्य-सेवा जैन आचार्य केवल प्राकृत और संस्कृत भाषा के ही धनी न थे, वे जिस प्रांत म विहार करते थे उस प्रान्त की भाषा की प्रतिभा पाकर तत्रस्थित जनसमुदाय के हितार्थ धर्म और साहित्य ग्रन्थों की रचना भी किया करते थे। तमिल प्रान्त के आचार्यों के कार्य-कलाप अत्यंत अनूठे हैं । उन्होंने तमिल भाषा के उच्च कोटि के ग्रन्थों की रचना की थी। तमिल साहित्य के लिए उन्होंने जो योगदान दिया है वह महत्वपूर्ण है। तमिल साहित्य-रचना की प्रवृत्ति लगभग ईस्वी दूसरी शताब्दी से छठी शताब्दी तक अत्यन्त प्रबल थी। हरिषेण रचित (ई. १३१) वृहत् कथा कोष तथा कन्नड़ भाषा में देवनन्दि विरचित राजावलि कथे (ई. १८३८) इन ग्रन्थों से तमिल साहित्य व वाङमय का परिचय मिलता है। तमिल भाषा के व्याकरण ग्रन्थों में तोलकाधियम एक प्रामाणिक ग्रन्थ है जो ईपर्व का है। इसके रचयिता जैन आचार्य ही हैं। साहित्य के लिए ही व्याकरण लिखा जाता है, अत: साहित्य रचना काल व्याकरण के पद का मानना चाहिये । जब तोलकाधियम व्याकरण ई० पू० का है तो साहित्य रचना काल भी ईस्वी पूर्व होना चाहिये। जब ईस्वी पांचवीं शताब्दी के पहले तमिलनाडु में जैन धर्म का अस्तित्व था उस समय से ही साहित्य का अस्तित्व होना चाहिये। तमिल साहित्य तमिल काव्यों को महाकाव्य व लघुकाव्य के नाम से दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है । शिलप्पडिकारम, जीवक चिन्तामणि (8 वीं शताब्दी), कुण्डलकेशी, तलैयापबि, मणिमेखले ये पांचों महाकाव्य माने जाते हैं । इनमें पहले के तीन ग्रन्थ जैन आचार्यों की कृति हैं। चूलामणि, पेरुङ कर्ष, यशोधर काव्य, नागकुमार काव्य, नीलकेशी ये पांचों लघुकाव्य माने जाते हैं । ये सभी काव्य जैन आचार्यों की कृति हैं। इन काव्यों के अलावा और भी अनेक ग्रन्थ हैं जिनका नाम इस प्रकार है-मेरुमन्दपुराणम, नारदचरित्र, शान्तिपुराणम इत्यादि । व्याकरण, कोष, गणित, संगीत, नाटक, ज्योतिष, नीतिशास्त्र आदि विषयों के अन्य ग्रन्थ भी हैं। 'तोलकाप्पियम' तमिल भाषा का अति प्राचीन ग्रन्थ है। यह ई० पू० तीसरी या दूसरी शताब्दी में रचित एक व्याकरणग्रन्थ है। इसके रचयिता जैन आचार्य हैं, इस बात को जनेतर विद्वान भी मानते हैं। इसमें तत्कालीन समाज में प्रचलित गतिविधियों का भी वर्णन पाया जाता है। यह इसकी विशेषता है कि इसमें किसी प्रकार की साम्प्रदायिक बात नहीं हैं । अहिंसा सम्बन्धी विषयों पर अधिक जैन साहित्यानुशीलन १८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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