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________________ रीति नरोत्तमदास को, कोनो एक कवित्त । पढ़े रैन दिन भाट सौ, घर बजार जित कित्त ।। (अर्धकथानक, पृष्ठ ४४) काव्य-शिल्प बनारसीदास ने काव्य-शिल्प के संयोजक तत्त्वों के विवेचन में बहुत कम रुचि ली है-उनका विवेचन काव्य-भाषा और छन्द के विषय में संक्षिप्त प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विचार-प्रस्तुति तक सीमित है। (क) काव्य-भाषा : आलोच्य कवि ने काव्य-भाषा के सन्दर्भ में वर्णविन्यास, शब्द-सौष्ठव, अर्थ-गरिमा आदि के महत्त्व का प्रत्यक्ष कथन किया है । यथा : (अ) छंद सबद अच्छर अरथ कहै सिद्धान्त.प्रवांन । जो इहि विधि रचना र सो है सुकवि सुजान ।। (नाटक समयसार, पृष्ठ ५३०) (आ) वरण भंडार पंच वरण रतन सार, भौर हो भंडार भावबरण सुछंदजू । वरण तें भिन्नता सुवरण में प्रतिभास, सुगुण सुनत ताहि होत है अनंद जू । (बनारसीदिलास, ज्ञान बावनी, पृष्ठ ८६) (इ) एकारयवाची शब्द अरु द्विरुक्ति जो होय। नाम कथन के कवित में, दोष न लागे कोय ॥ (बनारसीविलास, जिनसहस्रनाम, पृष्ठ ३) प्रथम उद्धरण में शब्द-विन्यास-कौशल पर बल देने के साथ ही कवि ने द्वितीय उक्ति में भी वर्ण-लालित्य एवं काव्य-गुणों के संयोजन पर बल दिया है। 'गुण' से उनका अभिप्राय शब्द-गुण और अर्थ-गुण दोनों से प्रतीत होता है क्योंकि उनके कृतित्व में सामान्यतः जितना बल अर्थ-गाम्भीर्य पर रहा है, भावानुसारिणी भाषा के प्रति भी वे प्रायः उतने ही सजग रहे हैं-यह दूसरी बात है कि उनका प्रमुख विषय अध्यात्म-तत्त्व-निरूपण है और उसकी अभिव्यक्ति सर्वत्र काव्य की सहज-परिचित सरस शब्दावली में नहीं हो सकी है। द्वितीय अवतरण में 'पंच वरण रतन सार' प्रयोग भी ध्यान देने योग्य है जिससे उनका अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि मानव-मन के विभिन्न भावों को रूपायित करने में विभिन्न वर्गों के समाहार से निर्मित भावपोषक शब्दावली का उल्लेखनीय योग रहता है। तृतीय उद्धरण में भी कवि की भाषाविषयक सजगता का स्पष्ट संकेत विद्यमान है। ईश्वर-गुणगान-सम्बन्धी कविता में द्विरुक्ति अर्थात् अर्थगत पुनरुक्ति के दोषत्व का परिहार मानकर उन्होंने प्रकारान्तर से यह भाव व्यक्त किया है कि काव्य में सामान्यतः पुनरुक्त दोष का समावेश नहीं होना चाहिए। इस उक्ति में केवल भक्ति-भावना का प्रभाव स्वीकार करना उचित नहीं होगा, सन्दर्म-विशेष में पुनरुक्त की अदोषता का प्रतिपादन रुद्रट आदि आचार्यों ने भी किया है। यथा: यत्पदमर्थेऽन्यस्मिस्तत्पर्यायोऽयवा प्रयुज्येत । वीप्सायां च पुनस्तन्न दुष्टमेवं प्रसिद्धच ॥ (काव्यालंकार, ६ । ३२, पृष्ठ १७२) . (ख) काव्यगत छन्द-योजना : छन्द के सम्बन्ध में बनारसीदास का मत-प्रतिपादन अत्यन्त सीमित है। उन्होंने कवित्त आदि छन्दों के प्रयोग द्वारा वाणी की विविधतापूर्ण अभिव्यक्ति में ही कवि-कर्म की सार्थकता मानी है: कौरपाल बानारसी मित्र जुगल इकचित्त। तिनहिं ग्रन्थ भाषा कियो, बहुविधि छन्द कवित्त ॥ (बनारसीविलास, सूक्त मुक्तावली, पृष्ठ ७१) 'समयसार' नाटक में भी उन्होंने छन्द-वैविध्य की ओर समुचित ध्यान दिया है और ग्रंथान्त में अपने द्वारा प्रयुक्त छन्दों (दोहा, सोरठा, चौपाई, कवित्त, सवैया, छप्पय, कुंडलिया आदि)का विवरण अंकित किया है । (देखिए 'नाटक समयसार', पृष्ठ ५४१)। इसी प्रकार "छन्द भुजंगप्रयात में अष्टक कहौं बखान" (बनारसीविलास, शारदाष्टक, पृष्ठ १६५) जैसी उक्तियों द्वारा भी उन्होंने विविध छन्दों के प्रति अपनी अभिरुचि का संकेत दिया है। काव्य के अधिकारी सहृदय काव्य-रचना के अधिकारी कवि और काव्यानुशीलन के अधिकारी सहृदय के गुणावगुणों का तुलनात्मक विश्लेषण काव्यशास्त्र का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। कवि की कारयित्री प्रतिभा जो रचना-विधान करती है, सहृदय की भावयित्री प्रतिभा उसी के मूल्यांकन में प्रवृत्त होती है। काव्यानुभूति को ग्रहण करने में असमर्थ अविवेकी पाठक के समक्ष कवि का सम्पूर्ण कृतित्व अरण्यरोदन के समान निष्प्रयोजन होता जैन साहित्यानुशीलन ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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