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(ई) वस्तु सरूप लख नहीं वाहिज द्रिष्टि प्रवांन । . मृषा विलास विलोकि के कर मृषा गुनगान ॥ (नाटक समयसार, पृष्ठ ५३३)
(उ) मिथ्यावंत कुकवि जे प्रानी, मिथ्या तिनको भाषित वानी। (नाटक समयसार, पृष्ठ ५३४) भक्त कवि होने के नाते बनारसीदास ने काव्य में नैतिक मूल्यों के निर्वाह पर विशेष बल दिया है। उन्होंने उन कवियों की भर्त्सना की है जो बाह्य दृष्टि के फलस्वरूप कल्पनाविलास में मग्न रहते हैं और मिथ्या वर्णन को ही 'नई उकति' मान बैठते हैं । ये सन्दर्भ कवि की उपयोगितावादी दृष्टि के परिचायक हैं और इनके आधार पर साहित्य का अध्ययन एकांगी ही रहेगा। साहित्य के आस्वादन में सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि भी इतनी ही अपेक्षित है। काव्य-क्षेत्र में अध्ययन की ये दोनों सरणियाँ समानान्तर रूप से प्रचलित रही हैं, किन्तु कवि-कर्तृत्व का सम्यक् मूल्यांकन इनके समन्वय पर ही निर्भर करता है।
अनुभूत सत्यों और नैतिक मूल्यों पर बल देने के फलस्वरूप बनारसीदास ने काव्य में भक्ति-निरूपण का भी समर्थन किया है। भक्ति-भाव की अभिव्यक्ति कभी आरती के रूप में और कभी सुन्दर वाणी द्वारा ईश्वर के प्रति सश्रद्ध नमन के रूप में होती है :
"कबहू आरती व प्रभु सनमुख आवं, कबहू सुभारती हूं बाहरि बगति है।"
(नाटक समयसार, पृष्ठ १५) इसीलिए बनारसीदास ने ब्रह्म-महिमा-वर्णन और परमार्थ-पंथ-निरूपण में ही भक्त कवि के कृतित्व की सार्थकता मानी है। 'जिनसहस्रनाम,' 'वेदनिर्णयपंचासिका', और 'ध्यानबत्तीसी' में उन्होंने भक्ति-तत्त्व की वर्णनीयता को इन शब्दों में प्रकट किया है :
(अ) महिमा ब्रह्मविलास की, मो पर कही न जाय ।
यथाशक्ति कछु वरणई, नामकथन गुण गाय ॥ (बनारसीविलास, पृष्ठ १६) (आ) तिनके नाम अनन्त, ज्ञानभित गुनगझे।
मैं तेते वरणये, अरथ जिन जिनके बूमे ॥ (बनारसीविलास, पृष्ठ १००) (इ) यह परमारय पंथ गुन अगम अनन्त बखान ।
कहत बनारसि अल्पमति, जथासकति परवान ॥ (बनारसीविलास, पृष्ठ १४३) यद्यपि यहाँ कवि ने विनम्रतावश स्वयं को 'अल्पमति' कहा है, तथापि आत्मसाक्षात्कारजनित भाव-वर्णन और ज्ञानभित तत्त्व-चिन्तन में उनकी प्रवृत्ति असन्दिग्ध है। इसीलिए उन्होंने मुक्ति-मार्ग की ओर प्रवृत्त करनेवाले शुद्ध संकल्प और शुद्ध व्यवहार की अनुभवप्रेरित अभिव्यक्ति पर बल दिया है और परम तत्त्व की व्याख्या के संदर्भ में 'समयपाहुड' में शिवमार्ग के कारणभूत गुण-संस्थानों का वर्णन न पाकर 'नाटक समयसार' में इस प्रकरण का समावेश किया है:
परम तत्त परचे इस मांही, गुनथानक की रचना नाहीं। यामैं गुनथानक रस आवं, तो गरंथ अति सोभा पावै ॥
इह विचारि संछेप सों, गुनथानक रस चोज।
बरनन कर बनारसी, कारन सिव-पथ खोज ॥ (नाटक समयसार, पृष्ठ ४७०-४७१) भक्ति-भाव की प्रबल प्रेरणा के फलस्वरूप बनारसीदास ने शृंगार-काव्य की प्रत्यक्ष अवमानना की है-किशोरावस्था में लिखित श्रृंगारप्रधान रचना के सन्दर्भ में, जिसे बाद में नष्ट कर दिया था, उन्होंने स्वयं को 'कुकवि' और 'मिथ्या ग्रन्थकार' कहकर यही भाव प्रकट किया है :
तामैं नवरस रचना लिखी, 4 बिसेस बरनन आसिखी।
ऐसे कुकवि बनारसि भए, मिथ्या ग्रन्थ बनाए नए॥ (अर्ध कथानक, पृष्ठ १७) श्रृंगार-काव्य का निषेध करने पर भी बनारसीदास ने प्रशस्तिकाव्य का समर्थन किया है, जो उन-जैसे संकल्पमना भक्त के लिए सर्वथा विचित्र प्रतीत होता है, किन्तु विशेषता यह है कि उन्होंने स्वार्थप्रेरित राजप्रशस्ति के स्थान पर चित्तवैशद्य पर आधारित मित्रप्रशस्ति को गौरव दिया है । व्यवसाय-क्षेत्र में सहायता करनेवाले स्नेही मित्र नरोत्तमदास के लिए भाट-वृत्ति अपनाने में भक्त कवि बनारसीदास को कोई संकोच नहीं है :
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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