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(इ) तुच्छ मति मोरी तामैं कविकला थोरी।
(नाटक समयसार, पृष्ठ ५२६) (ई) समयसार नाटक अकथ, कवि की मति लघु होई। . (नाटक समयसार, पृष्ठ ५२६) उपर्युक्त उक्तियों में बनारसीदास ने जिस विनम्रता को प्रकट किया है उसके मूल में उनकी भाव-प्रवणता असन्दिग्ध है। वाच्यार्य में अल्प, तुच्छ और लघु कवि-प्रतिभा की सीमाओं के द्योतक हो सकते हैं, किन्तु वस्तुतः यहाँ प्रतिभा की अवमानना नहीं हुई है क्योंकि कविकृति की विमलता सदैव विवेक और अनुभूति-वैशद्य के विनयपूर्ण समन्वय पर निर्भर करती है।
प्रतिभा के उन्मेष में गुरु-कृपा का अवलम्बन भी प्रसिद्ध काव्य-हेतु है। बनारसीदास ने गुरु के मार्ग-दर्शन की महिमा को इन शब्दों में प्रकट किया है :
ज्यों गरंथ को अरथ कहौ गुरु त्योंहि, हमारी मति कहिवे को सावधान भई है।
(नाटक समयसार, पृष्ठ १४) बनारसीदास के पूर्ववर्ती जैन कवि वसुनन्दि ने भी आचार्य श्री नन्दि से नेमिचन्द्र तक की गुरु-परम्परा का श्रद्धापूर्ण स्तवन किया है। (देखिए 'वसुनन्दि श्रावकाचार', पृष्ठ १४२) ऐसे स्थलों पर गुरु के महत्त्व की स्वीकृति के दो कारण सम्भव हैं -एक तो यह कि ज्ञानसाधना और तत्सम्बद्ध समस्याओं के समाधान के लिए गुरु की सहायता अपेक्षित होती है और दूसरे यह कि निरन्तर साहचर्य के परिणामस्वरूप उनके गुणों के प्रति आस्था-बुद्धि विकसित हो जाती है। इनमें से प्रथम पक्ष उपयोगितावादी दृष्टिकोण पर आधारित है और दूसरा परम्परागत संस्कारों की देन है-एक का सम्बन्ध बुद्धि से अधिक है, तो दूसरे का हृदय से। काव्य-सर्जना में इन दोनों का प्रत्यक्ष योग, रहता है।
पूर्ववर्ती श्रेष्ठ कवियों की रचनाओं के मनोयोगपूर्ण अनुशीलन, आध्यात्मिक ग्रन्थों में श्रद्धापूर्वक अवगाहन आदि भी कविप्रतिभा के प्रेरक और संस्कारक साधन हैं-कल्पना-सामर्थ्य तथा उक्ति-कौशल का समुचित विन्यास करने पर इनके माध्यम से प्रभावी काव्य-सृष्टि असंदिग्ध है । बनारसीदास की उक्तियों में इसी तथ्य का संकेत मिलता है :
(अ) इनके नाम भेद विस्तार, वरणहुँ जिनवानी अनुसार। (बनारसीविलास, मार्गणा विधान, पृष्ठ १०४) (आ) जिनवाणी परमाण कर, सुगुरु सीख मन आन ।
कछुक जीव अरु कर्म को, निर्णय कहों बखान ॥ (बनारसीविलास, कर्मछत्तीसी, पृष्ठ १३६) बनारसीदास द्वारा जिनवाणी को प्रमाण मानना वैष्णव भक्त कवियों की वेदादि ग्रन्थों के प्रति आस्था के समकक्ष है-प्रथम उद्धरण में जैन मत के चौदह मार्गों तथा बासठ शाखाओं में निर्धारणार्थ तथा द्वितीय उक्ति में कर्म-निर्णय के लिए जिनवाणी सम्बन्धी ग्रन्थों के उपयोग का परामर्श काव्य-चक्र का स्वाभाविक अंग है ; आगम का अनुसरण करनेवाले ऐसे कवियों को राजशेखर ने 'शास्त्रार्थ कवि' की संज्ञा दी है। (देखिए 'काव्य मीमांसा', पंचम अध्याय, पृष्ठ ४२, ४७) साहित्य में धार्मिक मतवाद की अभिव्यक्ति पर्याप्त विवादास्पद रही है, फिर भी धार्मिक आस्थाओं और प्रचलित सामाजिक संस्कारों का कवि-कर्तृत्व पर प्रभाव अवश्य पड़ता है।
काव्य-वर्ण्य
काव्य में वर्णनीय विषयों के सन्दर्भ में बनारसीदास ने अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति पर बल दिया है। वस्तुतः काव्य-दर्य की दीप्ति विषय की प्रामाणिक प्रस्तुति पर निर्भर करती है। यह प्रामाणिकता लोकदर्शनादि के आधार पर स्वतः अनुभूत भी हो सकती है और आप्त वाक्यों के कारण श्रद्धाप्रेरित भी। बनारसीदास ने सत्काव्य में इन दोनों दृष्टियों के निर्वाह पर बल दिया है और काव्य में आरोपित मिथ्या स्थितियों, दुराग्रह, अभिमान आदि को स्थान देने का विरोध किया है। उनका लक्ष्य सत्य की तटस्थ अभिव्यक्ति करना था, फलस्वरूप उन्होंने उसके साक्षात्कार में बाधा पहुँचानेवाले कल्पना-विलास के प्रति अनास्था प्रकट की है:
(अ) कलपित बात हियं नहिं आने, गुरु परम्परा रीति बखाने । सत्यारथ सैली नहिं छंडे, मृषावाद सौं प्रीति न मंडै ॥ (नाटक समयसार,
गृ ० ) (मा) मृषाभाव रस बरन हित सौं, नई उकति उपजावं चित सौं। (नाटक समयसार, पृष्ठ ५३.) (1) ऐसे मूद कुकवि कुधी, गहै मृषा मग दौर। रहे मगन अभिमान में, कहै और को और ॥
(नाटक समयसार, पृष्ठ ५३२)
मंन साहित्यानुशीलन
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