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________________ इनके लिए उनके चित्त में श्रद्धा (सरदहि) तथा शब्दार्थ-चिन्तन की क्षमता का होना आवश्यक है। भक्तिकाव्य के अनुशीलन में भावना और विवेक के समंजन पर बल देना निश्चय ही विवेच्य कवि के प्रौढ़ काव्य-विवेक का परिचायक है। बनारसीदास ने इसी से सम्बद्ध एक अन्य प्रयोजन 'बालबोध' अर्थात् लोकशिक्षार्थ सरल ग्रन्थ-रचना को भी मान्यता दी हैउनले कर्मप्रकृतिविधान' नामक ग्रन्थ के मूल में सिद्धान्त-ग्रन्थों की सुबोध व्याख्या का भाव ही निहित है। पूर्ववर्ती कवियों में नन्ददास, केशव और जान ने काव्य-रचना के इस प्रयोजन को स्वीकृति दी है। काव्य-हेतु बनारसीदास ने कवि-वाणी के उन्मेष में वाग्देवी की अनुकम्पा को महत्त्वपूर्ण माना है। 'बनारसीविलास' में 'अजितनाथ जी के छन्द' के आरम्भ में उन्होंने लिखा है : "सरसुति देवि प्रसाद लहि, गाऊं अजित जिनन्द ।” यद्यपि अजितनाथ जी की महिमा के वर्णनार्थ वाग्देवी की कृपा के आह्वान में हेतु की दृष्टि से कोई मौलिकता नहीं है, तथापि वर्ण्य विषय की नवीनता अवश्य ध्यान आकृष्ट करती है। इसी सन्दर्भ में कवि की निम्नलिखित उक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं जिनमें काव्य-प्रवृत्ति को शिव, शिव-पंथ, पार्श्वनाथ, जिनराज और जिन-प्रतिमा का कृपा-फल माना गया है : (अ) बंदों सिव अवगाहना अरु बंदी सिव पंथ । जसु प्रसाद भाषा करौं नाटकनाम गरंथ ।। (नाटक समयसार, पृष्ठ १२) (आ) तेई प्रभु पारस महारस के दाता अब । बीज मोहि साता दगलीला की ललक मैं ।। (नाटक समयसार, पृष्ठ ५) (इ) जिन-प्रतिमा जिन-सारनी, नमै बनारसि ताहि । जाकि भक्ति प्रभाव सौं, कीनौ ग्रन्थ निवाहि ॥ (नाटक समयसार, पृष्ठ ४६८) भक्ति रस (महारस) की अभिव्यक्ति के निमित्त कवि के लिए यह स्वाभाविक ही है कि वह शान्ति (साता) अर्थात् समाहितचित्तदशा की भी कामना करे। शिव और जिनराज के अनुग्रह से काव्य-विवेक की स्फूर्ति तभी सम्भव है जब कवि में संश्लेषणदृष्टि, आत्मसाक्षात्कार की प्रवृत्ति, अतीन्द्रिय ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता आदि का समुचित अन्तर्भाव हो। कवि का कर्तृत्व उसकी समाधि-दशा पर निर्भर करता है, जिसके लिए प्रबल आस्था और दृढ़ संकल्प-शक्ति आवश्यक हैं। शिवार्चन के रूप में बनारसीदास ने जिस आस्था और आस्तिकता को व्यक्त किया है, वह परम्परागत संस्कारों का फल है, जिसकी काव्य-जगत् में प्राय: अभिव्यक्ति मिलती है । यथा: (अ) सम्भु प्रसाद सुमति हिअं हुलसी, रामचरितमानस कवि तुलसी। (रामचरितमानस, पृष्ठ १८) (आ) काटे संकट के कटक, प्रथम तिहारी गाथ । मोहि भरोसो है सही, वै बानी गननाथ ।। (छत्रप्रकाश, लाल, पृष्ठ १) जैन धर्मावलम्बी होने के कारण वे मात्र इसी से संतुष्ट नहीं हुए, पार्श्वनाथ जिनराज के प्रति भी उन्होंने वैसी ही श्रद्धा दिलाई है। प्रतिभा की अवतारणा में दिव्य प्रेरणा का चाहे कितना भी योग हो, उसके लिए पौरुषेय प्रयत्न भी उतने ही अपेक्षित हैंदेवतादि की वन्दना तो मनःसंघटन के लिए निमित्त-मात्र है। यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि आस्तिकता-प्रेरित कवि-प्रतिभा के मूल में दिवेक को प्रचलता रहती है या भावुकता की ? सामान्यतः भक्तिकाव्य में भाव-प्रवणता का प्राबल्य रहता है, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में कहींन-कहीं विवेक की भूमिका भी अवश्य रहती है। जब कवि द्वारा रचना के आरम्भ में देवविशेष की आराधना की जाती है, तब उसके ज्ञान और भावना का उत्तरोत्तर आधार-आधेय-क्रम से विकास होता है। भक्त की भाँति वह केवल भावुकता के अंचल से नहीं लिपटा रहता, अपितु कृतविद्य होने के कारण उसकी प्रज्ञा में कला, धर्म, दर्शन और विज्ञान भी सन्निहित रहते हैं। विवेकाश्रयी होने पर भी कवि अन्तत: भाव-लोक-विहरण का अभिलाषी होता है, इसीलिए भावुक और सहृदय कवि प्रायः अहवार-मति से परिचालित नहीं होते। उन्हें अपनी काव्य-कला और वर्णन-क्षमता पर अभिमान नहीं होता : (अ) मैं अल्प बुद्धि नाटक आरंभ कीनौ । (नाटक समयसार, पृष्ठ १३) (आ) अलप कवीसुर को मतिधारा। (नाटक समयसार, पृष्ठ ५२५) भा . ११४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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