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________________ साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण गवेषणाएं की हैं। विश्व लोक कथा साहित्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि अनेक प्राकृत जैन कथाएं सागरपार विदेशों में गईं तथा वहां की मान्यताओं के अनुरूप वेशभूषा धारण कर उपस्थित हुई किन्तु अपनी आत्मा ज्यों की त्यों रखी । इस प्रकार अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो हजारों प्राकृत जैन कथाएं उपलब्ध होंगी जो सामान्य परिवर्तन के साथ पाश्चात्य कथा-साहित्य में गुम्फित हैं। सुभाषितों से भरपूर प्राकृत-कथा-साहित्य में सुभाषितों का विशाल भण्डार भरा पड़ा है। इसमें पग-पग पर एक से एक बढ़कर सुन्दर सुभाषित बिखरे मिलते हैं । वसुदेवहिण्डी में कहा गया है कि विषयों से विरक्त व्यक्ति सुख प्राप्त करता है "उक्कामिव जोइमालिणि, सुमुयंगायिव पुफियं लतं। विवुधो जो कामवतिणि, मुयई सो सुहिओ भविस्सइ ॥" —अग्नि से प्रज्वलित उल्का की भांति और भुजंगी से युक्त पुष्पित लता की भांति जो पण्डित कामवर्तिनी का त्याग करता है वह सुखी होता है। कथाकोश प्रकरण में प्रयुक्त सुभाषित देखिये "अणुरूवगुणं अणुरूवजोवणं माणुसं न जस्सत्थि । कि तेण जियंतेण पि मानि नवरं मओ एसो॥" ---जिस स्त्री के अनुरूप गुण-यौवन वाला पुरुष नहीं है उसके जीने से क्या लाभ ? उसे तो मृतक ही समझना चाहिए। णाणपंचमीकहा की प्रथम जयसेन कथा में प्रयुक्त सुभाषित "बरि हलिओ विहु भत्ता अनन्नभज्जो गुणेहि रहिओ वि। मा सगुणो बहुभज्जो जइ राया चक्कबट्टी वि॥" -अनेक पत्नी वाले सर्वगुण-सम्पन्न चक्रवर्ती राजा की अपेक्षा गुण-विहीन एक पत्नी वाला किसान कहीं श्रेष्ठ है । आख्यान मणिकोष में प्रयुक्त सुभाषित-- "थेवं थेवं धम्म करेह जइ ता बहुं न सक्केह। पेच्छइ महानईओ बिंदूहि समुद्दभूयाओ ॥" ---यदि धर्म बहुत नहीं कर सकते हो तो थोड़ा-थोड़ा करो। महानदियों को देखो, बूंद-बूंद कर समुद्र बन जाता है। इसी तरह कुमारपालप्रतिबोध, जिनदत्ताख्यान, रयनसेहरकहा आदि कथा-ग्रन्थों में सुभाषितों का कोष भरा पड़ा है। नैतिक आदर्शों का खजाना प्राकृत-कथा-साहित्य उपदेशात्मक तथा नीति-प्रधान है। इसमें स्थान-स्थान पर नीति, सदाचार आदि से संबंधित उपदेश मिलता है तथा यह साहित्य नैतिक आदर्शों से भरपूर है । इसमें स्वहित के स्थान पर सर्वभूतहिताय की भावना मिलती है तथा हिंसा, चोरी आदि से विरति. सबको समान समझना आदि नैतिक आदर्शों का उपदेश प्राप्त होता है । इन सभी नैतिक आदर्शों का उपदेश कथाकार ने स्वयं न देकर पात्रों के आचरण, जीवन के उतार-चढ़ाव आदि के माध्यम से दिया है। नाणपंचमीकहा से उद्धृत एक नीति गाथा देखिए-- ____ "नेहो बंधणमूलं नेहो लज्जाइनासओ पावो। नेहो दोग्गइमूलं पइदियह दुक्खहो नेहो॥" --समस्त बन्धनों का कारण स्नेह है । स्नेहाधिक्य से ही लज्जा नष्ट हो जाती है, स्नेहातिरेक ही दुर्गति का मूल है और स्नेहाधीन होने से ही मनुष्य को प्रतिदिन दुःख प्राप्त होता है। प्राकृत कथा संग्रह में भी कहा है "नीयजण मित्ती कायब्वा नेव पुरिसेण।" - सज्जन पुरुषों के द्वारा नीच व्यक्ति के साथ मित्रता नहीं की जानी चाहिए। "महिलाए विस्सामो कायम्वो नेव कइया वि।" ......महिलाओं का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। जैन साहित्यानुशीलन १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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