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________________ इसके अतिरिक्त धनोपार्जन के अन्य अनेक साधनों का वर्णन इस साहित्य में किया गया है । उस समय व्यक्ति जुआ, चोरी, गांठ काटकर ठगी करके भी धनार्जन करते थे, किन्तु यह अच्छा नहीं माना जाता था। कुवलयमालाकहा में निर्दोष धन-प्राप्ति का उपाय बताते हुए कहा है "अत्थस्स पुण उवाया दिसिगमणं होइ निमित्तकरणं च । णरवर सेवा कुसलत्तणं च माणप्पमाणेसु ॥ धातुवाओ मंतं च देवयाराहणं च केसि च। सायरतरणं तह रोहणम्मि खणणं वणिज्जं च ॥ णाणाविहं च कर्म विज्जासिप्पाई यरूवाई। अत्थस्स सहयाई अणिदियाइं च एयाई॥" दिशागमन, दूसरों से मित्रता करना, राजा की सेवा, मानप्रमाणों में कुशलता, धातुवाद, मन्त्र, देवता की आराधना, समुद्र-यात्रा, पहाड़ खोदना, वाणिज्य तथा अनेक प्रकार के कर्म, विधा और शिल्प-ये अर्थोत्पत्ति के निर्दोष साधन हैं। धन-प्राप्ति के लिए व्यक्ति परदेश में नीच कर्म भी कर लेता था क्योंकि वहां स्वजन न होने से लज्जा नहीं आती थी "उच्च नीयं कम्मं कीरइ देसंतरे धणनिमित्तं । सहवढियाण मज्ने लज्जिज्जइ नीयकम्मेण ॥" । (नम्मया० गा०६६४) इनके अतिरिक्त धातुवाद एवं रस-विद्या द्वारा भी अर्थोपार्जन किया जाता था। १६. रोग एवं प्रतीकार-रोग एवं उपचार का प्राकृत-कथा-साहित्य में प्रचुर मात्रा में उल्लेख मिलता है। समराइच्चकहा में शिरोकथा, कुष्ठ विसूचिका, मूर्छा, मारि, तिमिर, बधिरता आदि रोगों का उल्लेख है । शिरोव्यथा राजघरानों का प्रचलित रोग था। गुणसेन की शिरोकथा के वर्णन में कहा है-वैद्य चिकित्सा शास्त्रों को देख रहे थे तथा विचित्र रत्नलेप लगाये जा रहे थे। रोगों के उपचार के लिए आरोग्यमणि का भी उल्लेख मिलता है। चर्म रोगों को दूर करने के लिए सहस्रपाक का प्रयोग किया जाता था। कुवलयमाला में सर्प का विष उतारने के लिए नाभि में राख रगड़ना, बाईं ओर के नथुने में चार अंगुल की डोरी फिराना, मस्तक ताड़ित करना आदि उपाय बताये गए हैं। इसी तरह प्राकृत-कथा-साहित्य में अरिसा, अक्षिरोग, उदररोग, जलोदर, भगंदर, सर्पदंश आदि रोगों का उल्लेख तथा इनके लक्षणों का भी वर्णन मिलता है। रोगों के उपचार के लिए विरेचन, विभिन्न औषधियों आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। रयणसेहरकहा में दाहज्वर के उपचार के लिए उचित जल-पान का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त अन्य कथाओं में इस विषय की प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है। १७. कला-प्राकृत-कथा-साहित्य का स्थान कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें मृदंग, वीणा, वेणु, झल्लरी, डमरुक, शंख, मृदंग, ताल, ढक्का, तूर आदि वादित्रों का वर्णन पाया जाता है । संगीत कला की तरह ही चित्रकला, स्थापत्यकला, मूर्तिकला आदि लौकिक कलाओं की दृष्टि से भी यह साहित्य महत्त्वपूर्ण है। कुवलयमालाकहा, समराइच्चकहा आदि प्राकृत कथाकाव्यों में कलासामग्री अत्यधिक मात्रा में मिलती है। प्राकृत जैन कथाओं का देशाटन मानव के आवागमन के साधनों का जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे कथा-साहित्य भी एक देश से दूसरे देश में पहुंचता गया। जैन आचार्य भी उपदेश देने एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे तथा उस स्थान की भाषा में ही उपदेश देते थे जिससे कथाएं सभी स्थानों पर जाने लगी तथा श्रोता उन्हें श्रवण कर अपने अनुसार अन्य लोगों से कहने लगे जिससे ये कथाएं अलग-अलग भाषाओं में अनूदित होती गईं और इसी प्रकार देशाटन करती हुई विदेशों में भी पहुंची जहां उनका स्वागत किया गया तथा वहां स्वरूप बदल दिए जाने पर भी उनका मूल भाव ज्यों का त्यों रहा । एक ही कथा ने भिन्न-भिन्न नाम एवं रूप ग्रहण कर लिये। कई कथाएं जर्मन, फ्रेंच आदि भाषाओं में अनूदित हुई। मेक्समूलर एवं हर्टले ने अपने अध्ययनों के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया है कि भारतीय कथा साहित्य का यह प्रवाह निरंतर पाश्चात्य देशों की ओर प्रवाहित रहा है। सुप्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान् श्री सी० एच० टान ने अपने ग्रन्थ 'ट्रेजरी ऑफ स्टोरीज़' की भूमिका में स्वीकार किया है कि जैनों के कथाकोषों में संग्रहीत कथाओं एवं यूरोपीय कथाओं में अत्यन्त निकट साम्य है। पूर्व मध्य काल में ही अनेक जैन कथाएं भारत के पश्चिमी तट से अरब पहुंचीं, वहां से ईरान, ईरान से यूरोप । अनेक प्राकृत जैन कथाओं को तिब्बत, हिन्द एशिया, रूस, यूनान, सिसली व इटली के तथा यहूदियों के साहित्य की अखिल भारतीय संस्कृति का प्रतीक माना जाना चाहिए और यथार्थतः है भी यही । श्री टाने, बल्हर, ल्यूमेन, तिस्सितौरि, जेकोबी आदि अनेक यूरोपीय प्राच्यविदों ने जैन प्राकृत कथा १.४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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