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________________ आदशों से भरपूर हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता, सामाजिक एवं नैतिक जीवन आदि का वास्तविक एवं सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राकृत - कथा - साहित्य अत्यन्त उपयोगी है। निम्नवर्गीय व्यक्ति से लेकर उच्चवर्गीय व्यक्ति तक के चरित्र का जितना विस्तृत तथा सूक्ष्म वर्णन प्राकृत कथाओं में मिलता है उतना अन्यत्र दुर्लभ है। उपदेशात्मक होते हुए भी कला का अत्यधिक समावेश है। मानव-विश्वास, देवीदेवता, वेश-भूषा, व्यवसाय आदि का विशुद्ध चित्रण इन कथाओं में ही मिलता है। इनमें जैन लोक संस्कृति के विरक्ति, करुणा, उदारता, , सेवा आदि के मधुर स्वर ध्वनित होते हैं। ये प्राकृत कथाएं भूत को वर्तमान से जोड़ती हुई सीधा उपदेश नहीं देतीं बल्कि कथानक स्वयं ही अपना उद्देश्य प्रकट करते हैं । इसी प्रकार कुवलयमाला, रयणसेहरकहा आख्यान, मणिकोष आदि कथा - काव्य अहिंसा, अचौर्य, सज्जन-संगति आदि नैतिक इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राकृत कथा-साहित्य हर दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा यह साहित्य अन्य भाषाओं के साहित्य के लिए उपजीव्य रहा है । प्राकृत कथाओं के महत्त्व को स्वीकार करते हुए विण्टरनित्स ने 'ए हिस्ट्री आफ इण्डियन लिट्रेचर' में कहा है- "जैनों का कथा साहित्य सचमुच विशाल है इसका महत्व केवल तुलनात्मक परिकथा साहित्य के विद्यार्थी के लिए ही नहीं है, बल्कि साहित्य की अन्य शाखाओं की अपेक्षा हमें इसमें जन साधारण के वास्तविक जीवन की झांकियां मिलती हैं। जिस प्रकार इन कथाओं की भाषा और जनता की भाषा में साम्य है, उसी प्रकार उनका वर्ण्य विषय भी विभिन्न वर्गों के वास्तविक जीवन का चित्र हमारे सामने उपस्थित करता है । केवल राजाओं और पुरोहितों का जीवन ही उस कथा साहित्य में चित्रित नहीं है अपितु साधारण व्यक्तियों का जीवन भी अंकित है।" प्रो० हर्टले ने 'आन दी लिट्रेचर आफ दी श्वेताम्बराज ऑफ गुजरात' नामक पुस्तक में कहा है- "कहानी कहने की कला की विशिष्टता जैन कहानियों में पाई जाती है। ये कहानियां भारत के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों के रस्म-रिवाज को पूरी सच्चाई के साथ अभिव्यक्त करती हैं । ये कहानियां जन साधारण की शिक्षा का उद्गम स्थान ही नहीं है वरन् भारतीय सभ्यता का इतिहास भी हैं ।" इस प्रकार उपरोक्त विवरण, विद्वानों के विचारों तथा प्राकृत- जैन-कथा-साहित्य के विदेशों में प्रचार-प्रसार को देखने से ज्ञात होता है कि प्राकृत जैन-कथा-साहित्य ने भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी अपना गौरवपूर्ण स्थान बनाया है। इसने भारतीय साहित्य, संस्कृति, सभ्यता आदि को ही प्रभावित नहीं किया है बल्कि विदेशी साहित्य, संस्कृति, सभ्यता आदि को भी प्रभावित किया है तथा यह मात्र भारतीय साहित्य का ही नहीं, अपितु पादचात्य साहित्य का भी उपजीव्य रहा है। १०६ Jain Education International इस देश की भाषागत उन्नति के भी जैन मुनि सहायक रहे हैं। ब्राह्मण अपने धर्मग्रन्थ संस्कृत में और बौद्ध पालि में लिखते थे, किन्तु, जैन मुनियों ने प्राकृत की अनेक रूपों का उपयोग किया और प्रत्येक काल एवं प्रत्येक क्षेत्र में जब जो भाषा चालू थी, जैनों ने उसी के माध्यम से अपना प्रचार किया। इस प्रकार, प्राकृत से अनेक रूपों की उन्होंने सेवा की। महावीर ने अर्धमागधी को इसलिए चुना था कि मागधी और शौर सेनी, दोनों भाषाओं के लोग उनका उपदेश समझ सकें। बाद को, ये उपदेश लिख भी लिये गए और उन्हीं के लेखन में हम अर्धमागधी भाषा का नमूना आज भी पाते हैं। हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के जन्म लेने से पूर्व, इन प्रान्तों में जो भाषा प्रचलित थी उसमें जैनों का विशाल साहित्य है जिसे अपभ्रंश साहित्य कहते हैं। भारत की भाषाओं में एक ओर तो प्राचीन भाषाएं, संस्कृत और प्राकृत हैं तथा दूसरी ओर, आज की देश- भाषाएँ । अपभ्रंश भाषा इन दोनों भाषा समूहों के बीच की कड़ी है। इसलिए, भारत के भाषा विषयक अध्ययन की दृष्टि से अपभ्रंश का बड़ा महत्त्व है। जैन विद्वानों ने संस्कृत की भी काफी सेवा की। संस्कृत में भी जैनों के लिखे अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें से कुछ तो काव्य और वर्णन हैं तथा कुछ दर्शन के संबंध में। व्याकरण, छन्दशास्त्र, कोष और गणित पर भी संस्कृत में जैनाचार्यों के ग्रन्थ मिलते हैं । - श्री रामधारीसिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय, पृ० १२१ से उद्धृत आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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