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________________ एवं शान्ति के विजेता, जय जवान जय किसान के उद्घोषक लोकप्रिय प्रधानमन्त्री स्व. श्री लालबहादुर शास्त्री जी पधारे थे। आचार्यश्री ने अपने धर्मसंदेश में जैन समाज को राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में सम्पत्ति देने का परामर्श दिया। आपकी प्रेरणा से वह सभा देशभक्ति एवं समर्पण का जीवित स्मारक बन गई थी। उपरोक्त धर्मसभा में श्रावक समुदाय एवं महिलाओं ने नकद राशि के अतिरिक्त राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए स्वर्ण आभूषण एवं मंगलसूत्र भी प्रदान किए थे। परमादरणीय श्री शास्त्री जी भी उस दृश्य से अभिभूत हो गए थे। उन्होंने स्वयं आचार्यश्री से मार्गदर्शन को आकांक्षा प्रकट की थी। स्व० श्री लालबहादुर शास्त्री सत्ता के केन्द्रीय पुरुष होते हुए भी भारतीय संस्कृति के सम्वाहक एवं अध्यात्मपुरुष थे। देश-विदेश में उनके उज्ज्वल चरित्र को श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। प्रधानमन्त्री पद पर आसीन होने के तत्काल पश्चात् जब लार्ड माउंटबेटन ने उन्हें ग्रेट ब्रिटेन की सद्भावना यात्रा के लिए आमंत्रित किया तब शास्त्री जी ने सहज भाव से उत्तर दिया था कि मुझ जैसा 'लघु' मानव आपके 'ग्रेट' ब्रिटेन मे क्या शोभा देगा ! लार्ड माउंटबेटन ने तुरन्त ही श्री शास्त्री की चारित्रिक गरिमा और उच्चादर्शों के प्रति नतमस्तक होते हुए स्वीकृति रूप में लिखा था कि हमारे देश में आदमी को 'इंचटेप' से नहीं, चरित्र से नापा जाता है ! ऐसा था श्री शास्त्री का चरित्र-हिमालय सा उच्च और धवल ! सत्ता के प्रति वे निर्मोही थे। राजा जनक के समान गृहस्थी होते हुए भी वीतरागी ! धर्मपुरुषों के सान्निध्य में उन्हें सन्तोष का अनुभव होता था । आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी के जन्मजयन्ती समारोह में पधारकर आप आचार्यश्री के धर्मोपदेश से प्रभावित हए । आयोजन से लौटते समय आप मन ही मन आचार्यश्री से सत्ता पर बने रहने का आशीर्वाद न चाहकर आत्मकल्याण का आशीर्वाद चाहते थे। आचार्यरत्न उनकी भावनाओं का समादर करते थे। अत: उनका सात्त्विक स्नेह स्वयं प्रस्फुटित होकर श्री शास्त्री को स्नेहासिक्त करता रहा । उस समय यह प्रतीत हो रहा था कि सत्ता अध्यात्म से शक्ति प्राप्त करने को आतुर है और अध्यात्म मानवकल्याण के लिए सत्ता को अपना ब्रह्मतेज सहज रूप में समर्पित कर रहा है । वह दृश्य वास्तव में पौराणिक युग की गौरवगाथाओं को लालकिले के मैदान में सार्थक कर रहा था। परिनिर्वाण महोत्सव के प्रेरक बाचार्यश्री के मन में जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के पच्चीस सौ वें परिनिर्वाण महोत्सव की परिकल्पना लगभग तीस वर्ष पूर्व जागृत हुई थी । बनारस, लखनऊ, बाराबंकी एवं टिकैत नगर के चातुर्मासों में उन्होंने इसका संकेत अपने द्वारा सम्पादित साहित्य में किया था। इस योजना को भव्य एवं विराट रूप देने के लिए वह उद्यत रहते थे। इस महान कार्य को सम्पादित करने के लिए जैन धर्म के चारों सम्प्रदायों को एक धर्मध्वज के नीचे संगठित करने की उनकी वर्षों पूर्व की योजना थी। इसलिए वे अपने विहार पथ में श्वेताम्बर समाज की आदराञ्जलि को हर्ष के साथ ग्रहण किया करते थे। संयोगवश जैन समाज के सभी सम्प्रदायों में उन दिनों उदार एवं प्रगतिशील सन्तों का वर्चस्व था । परमपूज्य धर्मसम्राट् आनन्द ऋषि जी, परमपूज्य आचार्य श्री तुलसी जी, परमपूज्य उपाध्याय श्री अमरमुनि जी, विश्वसन्त श्री सुशील कुमार जी, राष्ट्रीय सन्त महामुनि श्री नगराज जी, महामुनि श्री महेन्द्र कुमार जी प्रथम, महामुनि श्री नथमल जी (वर्तमान में युवाचार्य) एवं अन्य समर्थ सन्त भी इस आयोजन की सफलता के लिए स्वतः ही संकल्पबद्ध थे। इन सभी पूज्य त्यागी महानुभावों ने वैचारिक कट्टरता का निषेध कर साधु संघों एवं समाज में सद्भाव का वातावरण बनाने में जो योग दिया है वह जैन समाज के इतिहास में अभूतपूर्व उपलब्धि है। परमपूज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी अपने मृदु एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण के कारण जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों के सन्तों में लोकप्रिय रहे हैं । भगवान महावीर स्वामी के २५०० वें परिनिर्वाण महोत्सव में सक्रिय रुचि लेने वाले सन्त श्री सुशील कुमार जी के विशेष अनुरोध, दिगम्बर जैन समाज की प्रार्थना एवं आयोजन की गरिमा को दृष्टिगत करते हुए आचार्यश्री ने राजधानी दिल्ली को १९७२-७३-७४ के चातुर्मासां से पुनः कृतज्ञ किया। ये तीन वर्ष जैन समाज एवं दिगम्बरत्व के इतिहास के स्वर्णिम वर्ष सिद्ध हुए हैं। आचार्यश्री इन तीन वर्षों में निरन्तर समाज के संयोजन में व्यस्त रहे। वे रुग्णता के उपरान्त भी लगभग १८-१६ घंटे कार्य करने की क्षमता रखते थे। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने इन दिनों यह अनुभव किया कि भगवान् महावीर स्वामी एवं जैन धर्म से सम्बन्धित साहित्य का व्यापक स्तर पर निर्माण एवं प्रकाशन कराया जाए। इसीलिए उन्होंने नगर के मन्दिरों के शास्त्र मण्डार का अवलोकन करके भक्तिकालीन महाकाव्य 'वर्धमान चरित्र' का हिन्दी भाषा में अनुवादित करके भगवान् महावीर और उनका तत्त्व दर्शन' नामक विशाल कालजयी व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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