________________
प्राकृत-जैन कथा-साहित्य का महत्त्व
सुधा खाब्या
मानव प्रारम्भ से ही कथा-प्रेमी रहा है । भारतीय साहित्य का अधिकांश भाग कथा-साहित्य है जिसमें एक से एक सुन्दर कथाएं वणित हैं। इस साहित्य में जहां लोक-संस्कृति, लोक-जीवन आदि की झलक देखने को मिलती है वहां तत्कालीन बोल-चाल की भाषा का आस्वादन भी प्राप्त होता है। बच्चे से लेकर वृद्ध तक सभी के लिए यह मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक है क्योंकि इनको समझने में मानसिक कसरत की आवश्यकता नहीं होती, ये सहज रूप से समझ में आ जाती हैं। विश्व के सम्पूर्ण साहित्य का अधिकांश भाग कथा-साहित्य के रूप में है । लौकिक साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं, अपितु धार्मिक साहित्य के क्षेत्र में भी कथा-साहित्य की बहुलता है। जैन साहित्य का लोक-दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य कथा-साहित्य ही है।
जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जैनाचार्यों ने नीति-कथाओं की परम्परा का प्रारम्भ किया। भारतीय लोक-कथा साहित्य में भी प्राकृत-कथा-साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके विषयों में मौलिकता है तथा ये भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर ले जाती हैं जिससे वैराग्य भावना एवं सदाचार का विकास होता है। ये कथाएं ऐसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती हैं जिससे मानव वैसा ही करने के लिए प्रेरित होता है । जीवन के उतार-चढ़ावों एवं पुनर्जन्मों का वर्णन जैनाचार्यों द्वारा कथा के माध्यम से इस ढंग से किया जाता है जिसे सुनते ही व्यक्ति संसार को असार समझने लगता है। तात्पर्य यह है कि कथाविचारों को अभिव्यक्त करने की ऐसी विधा है जिससे कथा कहने वाला व्यक्ति श्रोता पर अपनी इच्छानुसार प्रभाव डालने में सफल हो जाता है। जगन्नाथप्रसाद शर्मा ने अपनी पुस्तक 'कहानी का रचना-विधान' में कथा की सर्वजनप्रियता के कारण में कहा है-“साहित्य के माध्यम से डाले जाने वाले जितने प्रभाव हो सकते हैं; वे रचना के इस प्रकार में अच्छी तरह से उपस्थित किए जा सकते हैं। चाहे सिद्धान्त प्रतिपादन अभिप्रेत हो, चाहे चरित्र-चित्रण की सुन्दरता इष्ट हो, चाहे किसी घटना का महत्त्व निरूपण करना हो अथवा किसी वातावरण की सजीवता का उद्घाटन ही लक्ष्य हो या क्रिया का वेग अंकित करना हो या मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करना हो-सभी कुछ इसके द्वारा संभव है।"
कथा-साहित्य का प्रारम्भ कब से हुआ यह बताना उतना ही कठिन है जितना यह बताना कि मानव का जन्म कब हुआ। फिर भी विद्वानों ने इसके प्रारम्भ को जानने का प्रयत्न किया है। डॉ० याकोबी ने इसके उद्भव को बताते हुए लिखा है कि कथा-साहित्य का उद्भव ईसा की प्रथम शताब्दी पश्चात् के उत्तरार्द्ध में माना जाता है।
प्राकृत-कथा-साहित्य का प्रारम्भ
प्राकृत-कथा-साहित्य का मूल हमें आगम ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। जैन सिद्धान्तों के प्रसार के लिए सुन्दर एवं प्रेरणास्पद अंग व उपांग साहित्य में प्राप्त होते हैं। इसमें ऐसे अनेक आख्यान हैं जो मानव के नैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन को ऊंचा उठाने में सहायक हैं। नियुक्ति, चूणि आदि व्याख्या साहित्य में सैकड़ों शिक्षाप्रद आख्यान हैं जिनके माध्यम से दर्शन, सिद्धान्त एवं तत्त्व सम्बन्धी गढ़ समस्याओं को बहुत अच्छे ढंग से सुलझाया गया है।
आगमसाहित्य में प्राकृत कथाओं का बीज विद्यमान है किन्तु इसमें कथाओं का विस्तार नहीं है। जिस प्रकार बोने के बाद खाद-पानी आदि पर्याप्त मात्रा में देने पर बीज धीरे-धीरे वृक्ष का रूप धारण करता है, उसी प्रकार प्राकृत कथाओं का बीज आगम-साहित्य रूपी भूमि में बोया गया है जो कि धीरे-धीरे घटना, पात्र, कथोपकथन, शील निरूपण के लिए आवश्यक वातावरण आदि की संयोजना करने पर चूणि, भाष्य, टीका आदि साहित्य के रूप में विस्तृत हुआ है। जैनागमों में दर्शन के विभिन्न सिद्धान्तों को स्पष्ट करने के लिए छोटी-बड़ी कई कथाओं का सहारा लिया गया है। इन आगम-ग्रन्थों में ऐसे अनेक दृष्टान्त, रूपक आदि प्रयुक्त हुए हैं जो कि आगे चलकर प्राकृत कथासाहित्य को पुष्पित एवं पल्लवित करने में सहायक हुए हैं । प्राकृत कथा साहित्य की दृष्टि से नायाधम्म कहा, उवासग दसाओ, विपाक सूत्र जैन साहित्यानुशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org