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________________ आदि आगम ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें कथाएं उपमा, प्रतीक आदि के रूप में ग्रथित हैं जिससे हम कह सकते हैं कि प्राकृत कथा साहित्य की उत्पत्ति उपमा, प्रतीक, संवाद, दृष्टान्त, रूपक आदि के रूप में हुई। प्राकृत-कथा-साहित्य के विकास का दूसरा चरण आगमों पर लिखा गया टीका-साहित्य है। इस युग को टीका-युग कहा जाता है। इसमें आगमों में उल्लिखित उपमाओं को पूर्ण कथाओं का रूप दिया गया है । आगम में कथाएं 'वण्णओ' से बोझिल थीं किन्तु टीका-युग में यह प्रवृत्ति नहीं रही तथा कथाओं के सुन्दर वर्णन होने लगे एवं एकरूपता का स्थान विविधता एवं नवीनता तथा संक्षेप का स्थान विस्तार ने ले लिया। इस युग में कथा का परिवेश धीरे-धीरे विस्तृत होता गया क्योंकि कथा का रूप वातावरण एवं आवश्यकता पर आधारित होता है। ये कथाएं आवश्यक भाष्य या व्याख्या के सिलसिले में नीति-विचार या तथ्य की पुष्टि के रूप में ग्रहण की गई हैं। टीका-साहित्य की कथाओं में धीरे-धीरे रस का समावेश भी हो गया। डॉ० विण्टरनित्स ने अपने ग्रन्थ 'ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिट्रेचर' में कहा है.---"प्राचीन भारतीय कथा-शिल्प के अनेक रत्न जैन टीकाओं में कथा-साहित्य के माध्यम से हमें प्राप्त होते हैं। टीकाओं में यदि इन्हें सुरक्षित न रखा जाता तो ये लुप्त हो गए होते। जैन-साहित्य ने असंख्य निजधरी कथाओं के ऐसे भी मनोरंजक रूप सुरक्षित रखे हैं जो दूसरे स्रोतों से जाने जाते हैं।" आगम टीका-साहित्य में व्यवहार भाष्य, बृहत् कल्प भाष्य, उत्तराध्ययन टीका तथा अन्य नियुक्ति, चूणि, भाष्य साहित्य में अनेक प्राकृत कथाएं प्राप्त होती हैं। प्राकृत-कथाओं के भेद मोटे तौर पर कथा-साहित्य को दो भागों में बांटा जाता है--१. लोक-कथा साहित्य, २. अभिजात्य कथा-साहित्य । लोककथाओं में लोक-मानस, लोक-जीवन आदि की स्वाभाविक अभिव्यक्ति रहती है। लोक-कथाएं लोक-भाषा में निबद्ध होने के कारण तथा साधारण से सम्बन्धित होने के कारण लोगों को अपनी ओर शीघ्र ही आकृष्ट कर लेती हैं। इनमें लोक-तत्त्वों एवं विश्वासों का वर्णन होता है। अभिजात्य कथाएं मिश्रित, सुसंस्कृत तथा उच्चस्तरीय समाज से सम्बन्धित होती हैं। ये न तो जनसामान्य से सम्बन्धित होती हैं न ही जन-भाषा में निबद्ध होती हैं । ये परिष्कृत भाषा में लिखी जाती हैं । संस्कृत भाषा में निबद्ध कथाएं अभिजात्य वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं। इनमें जनसाधारण का चित्रण नहीं होता। प्राकत कथाएं लोक-कथाओं में आती हैं। इनकी भाषा जन-भाषा है। इनके पात्र समाज के मध्यम या निम्नवर्गीय हैं। ये जनसामान्य से जडी हई हैं। इनमें मानव को अपने ही प्रयत्नों से सिद्ध बनने की प्रेरणा दी गई है। कोई भी व्यक्ति एक भव में मुक्त नहीं होता। अत: इनमें जन्म-जन्मान्तरों, अच्छे-बुरे कर्मों के फल, आत्म-शुद्धि, व्रत-साधना, तपश्चरण आदि का चित्रण किया गया है। मक्ति प्राप्त करने के लिए कई जन्मों तक प्रयत्न करना पड़ता है। वैर-विरोध आदि का फल जन्मान्तरों तक भोगना पड़ता है। प्राकृत आगम एवं टीका-साहित्य में मात्र कथाओं का ही नहीं, अपितु कथाओं के स्वरूप का भी निरूपण किया गया है। 'दशवकालिक' में सामान्य कथा के भेद बताते हुए कहा गया है कि “अकहा कहा य विकहा हविज्ज पुरिसंतरं पप्प।" कथाएं तीन प्रकार की होती हैं-अकथा, कथा एवं विकथा । मिथ्यात्व के उदय से अज्ञानी व्यक्ति जिस कथा का उल्लेख करता है वह अकथा है। जिस कथा में तप, संयम, ध्यान आदि का निरूपण होता है वह सत्कथा है तथा जिसमें प्रमाद, कषाय, राग-द्वेष आदि समाज को विकृत करने वाली कथाएं हों वह विकथा है । प्राकृत साहित्य में सत्कथा को ही अपनाया गया है। प्राकृत कथा-साहित्य के विभिन्न रूपों को देखते हुए इसे वर्ण्य-विषय, पात्र, शैली एवं भाषा की दृष्टि से अनेक भागों में बांटा गया है१. वर्ण्य विषय की दृष्टि से-वर्ण्य विषय की दृष्टि से दशवकालिक सूत्र में कथाओं को चार भागों में बांटा गया है-- 'अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा। एत्तो एक्केक्कावि य णेगविहा होइ णायव्वा ॥" (गा. ११८) अर्थात् अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और मिश्रित कथा-इन चारों प्रकारों की कथाओं में से प्रत्येक प्रकार की कथाओं के अनेक भेद हैं। समराइच्चकहा में भी इन्हीं भेदों को मानते हुए कहा है ____ "तं जहा–अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा संकिण्ण कहा य।" (पृ०२) जम्बूदीव पण्णत्ति में भी कहा है "अत्थकहा कामकहा धम्मकहा वह य संकिन्ना।" (जंबू०प० उ० गा०२२) आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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