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"किया बल्कि उसके मर्म को जीवन में साकार कर लिया है । सम्राट् भरत चक्रवर्ती की सुविधाओं से सम्पन्न होते हुए भी परम वैरागी थे।
__ सन् १९५५ के गौरवपूर्ण चातुर्मास में आचार्यरत्न देशभूषणजी मानव धर्म की ज्योति को प्रज्वलित करते रहे। एक धर्म विशेष से । सम्बन्धित होते हुए भी उन्होंने सभी धर्मों के साहित्य का अध्ययन किया और अपनी उदारता से पंथ विशेष की परिधियों को तोड़कर
मानवता के लिए उपदेश दिया। इसीलिए जो भी व्यक्ति आपके सम्पर्क में आया वह आपकी चुम्बकीय शक्ति से प्रभावित हो गया। दिल्ली के इतिहास में पहली बार राजधानी की सर्वप्रमुख वैदिक संस्था ने आपके धर्मोपदेशों को प्रकाशित कराके जनसामान्य में वितरित कराया। आपके प्रथम मंगलप्रवेश से ही राजधानी के वातावरण में धर्म एवं सद्भाव की वृद्धि हुई। हिन्दू समाज के धर्मप्राण नेता स्व. श्री जुगलकिशोर जी बिरला ने आप में राष्ट्रीय सन्त की समर्थ भूमिका का निर्वाह करने वाले सौम्य ऋषि का दर्शन किया और तत्काल राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित होकर आपको बिरला मन्दिर में धर्मोपदेश के लिए आमन्त्रित किया। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने भी सम्प्रदाय विशेष के पूर्वाग्रहों से ग्रसित व्यामोहों को छोड़कर दिगम्बर आचार्य के रूप में श्री लक्ष्मीनारायण जी के मन्दिर के गीता भवन में धर्मोपदेश दिया। उस दिन ऐसा अनुभव हुआ कि नारायण श्री कृष्ण के गीता पाठ का आचार्य श्री मानो भाष्य करते हुए स्वतन्त्र भारत की चेतना को "सर्वधर्म सद्भाव," "अनेकान्तवाद" एवं निर्भयता का मंगल उपदेश दे रहे हों। वास्तव में यह दिन सांस्कृतिक इतिहास की कड़ी के रूप में प्रस्तुत हुआ था जो युगान्तर तक वैचारिक कट्टरता को समाप्त करने में प्रेरणा देता रहेगा ।
सन् १९५५ के चातुर्मास के समापन के उपरान्त आप उत्तर भारत के ग्रामों में पदयात्रा करते हुए धर्मप्रभावना करते रहे । देवयोग से सन् १९५६ का चातुर्मास भी आपको दिल्ली में करना पड़ा। भगवान महावीर स्वामी की श्रमण परम्परा का समुचित प्रतिनिधित्व करने के लिए आप जैसे समर्थ ऋषि का दिल्ली में होना अत्यावश्यक था। इस वर्ष परमकारुणिक भगवान् बुद्ध की २५०० वी जयन्ती का विश्व स्तर पर आयोजन किया जाना था। आचार्यश्री ने इस अवसर पर श्रमण परम्परा के उन्नायक भगवान् महावीर (भगवान् बुद्ध के समकालीन एव उनसे आयु में कुछ ही बड़े) के सिद्धान्त एवं दर्शन को सर्वसुलभ एवं लोकप्रिय बनाने की भावना से दिल्ली में चातुर्मास किया। इस महत्त्वपूर्ण चातुर्मास के माध्यम से आचार्यश्री ने जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों को एक मंच पर एकत्र होने का सन्देश दिया। उन्हीं की प्रेरणा से राजधानी में जैन धर्म सम्बन्धी कला एवं साहित्य की प्रदर्शनी का आयोजन पहली बार सम्भव हो पाया। साहित्यशुरुष श्री देशभूषण जी ने विदेशी अतिथियों के लिए इस अवसर पर अंग्रेजी भाषा में 'तत्वार्य सूत्र', 'आत्मानुशासन', 'द्रव्य संग्रह' एवं 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' नामक ग्रन्थों का प्रकाशन एवं वितरण कराया। उस समय उनके पोरुष को देखकर ऐसा अनुभव हुआ कि उनका जन्म साहित्य-साधना एवं धर्म-प्रचार के निमित्त ही हुआ है।
आचार्यश्री ने १६५७ ई० का चातुर्मास भी निकटवर्ती प्रदेशों की यात्रा के उपरान्त पुनः पहाड़ोधीरज दिल्ली में किया। -साहित्य को समर्पित आचार्यश्री ने इन तीन वर्षों में स्वाध्याय के अतिरिक्त अनेक महत्त्वपूर्ण लुप्तप्रायः ताडपत्रीय ग्रन्थों का अनुवाद एवं प्रकाशन कराया। 'श्री भूवलय' जैसे जटिल अंक शास्त्र के ग्रंयसे विद्वत समाज को परिचित कराने, जैन शास्त्र-सम्पदा को सर्वसुलभ कराने और धर्मानुरागियों के शंकासमाधान एवं मार्गदर्शन के लिए इस प्रकार के सन्त का दिल्ली में होना आवश्यक था। समाज की प्रार्थना को स्वीकार कर आचार्यरत्न ने अपने आचरण से सत्ताप्रमुखों, अनुसन्धाताओं, विद्वत्जनों एवं सार्वसाधारण को जो लाभ पहुंचाया, उससे दिल्ली के जैन समाज में एक नए आत्मविश्वास का उदय हुआ था। विदेशी अतिथियों ने आचार्य महाराज से भेंटस्वरूप पुस्तक लेने से पूर्व ५ मिनट आत्ममंथन किया और पुस्तक लेते समय अन्तःप्रेरणा से सर्वदा के लिए मांस का त्याग कर दिया। उन सुखद क्षणों में यह अनुभव हुआ कि आत्मशक्ति के चरणों में राजकीय वैभव स्वयं नतमस्तक होता है-आत्मवैभव के प्रतीक श्री देशभूषण वास्तव में भारतीय आत्मा के अपराजेय कालजयी स्वर हैं ।
१६५७ ई. के चातुर्मास के उपरान्त पूज्य आचार्यरत्न जी ने १९६३ ई० एवं १९६५ ई० में पुनः देहली को अनुगृहीत किया। अपनी रचनात्मक शक्ति से श्रमणराज देशभूषण जी ने विपुल साहित्यसृजन के साथ-साथ इन चातुर्मासों में अनेक ऐतिहासिक जिन मन्दिरों को नया रूप एवं विकसित होती राजधानी में श्रावकों की आवश्यकतानुरूप नए मन्दिरों के निर्माण की प्रेरणा दी। आपके सबल नेतृत्व में पांच सौ वर्ष पूर्व के ऐतिहासिक भट्टारकों के मन्दिर (सब्जीमंडी) को नया रूप प्राप्त हो सका और लगभग २० नए मन्दिरों का शिलान्यास एवं वेदी प्रतिष्ठा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। शक्तिनगर, कैलाशनगर, गांधीनगर, नवीन शाहदरा, दिल्ली कैन्ट इत्यादि के अनेक मन्दिर आपकी संकल्पात्मक शक्ति के प्रतीक हैं। वास्तव में आपने दिल्ली के जैन वैभव में अनेक वृद्धियां की हैं। एक भविष्यद्रष्टा ऋषि के रूप में आपने अपने महातेज से २५ जुलाई १९६३ को क्षु० पार्श्वकीति को मुनि श्री विद्यानन्द के रूप में दीक्षित कर जिनशासन को एक नया आस्था का स्वर और साक्षात् धर्मचक्र देकर भारतवर्ष के श्रावकों को कृतार्य किया। उस दिन दिल्ली ने पहली बार दिगम्बर 'मुनि दीक्षा के पावन संस्पर्श से अपने को पवित्र किया था। आचार्यश्री ने सहज उदारता से दीक्षा समारोह में दीक्षा मन्त्रों का पाठ करने के लिए राजधानी स्थित श्वेताम्बर साधुनों को आमन्त्रित कर जैन एकता की ठोस बुनियाद रखी थी, जिससे एकता के स्वप्न साकार हो रहे हैं।
कालजयी व्यक्तिला
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