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मानगांव
१६७४
१९६१ १९६२
१९७५
अब्दुललाट दिल्ली
दिल्ली कोथली कोथली
१९६३
१६७६
१९७७
कोथली
१९६४ १९६५
जयपुर दिल्ली
भोज
१६६६
जयपुर स्तवनिधि
१९७८ १९७६ १९८०
शमनेवाड़ी कोथली
१९६७
१९६८
बेलगांव
१९८१
कोथली
१६६६
कोल्हापुर
१९८२
१९७०
भोज
१९८३
जयपुर कोथली कोथली कोथली
१९७१
१९८४
जयपुर दिल्ली दिल्ली
१९७२ १९७३
१९८५
१९८६
सदलगा
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि आचार्य श्री देश भूषण जी ने जयपुर में पांच, दिल्ली में आठ, कलकत्ता में एक, कोथली (एवं निकटवर्ती क्षेत्र) में ग्यारह चातुर्मास सम्पन्न किये हैं । इन सभी चातुर्मासों में उन्होंने एक ओर तो श्रावकों को ज्ञान का उपदेश देकर उनके मुक्ति-मार्ग के द्वार का उद्घाटन किया है और दूसरी ओर अनेक लुप्तप्रायः शास्त्रों, जिनालयों, तीर्थक्षेत्रों आदि का उद्धार करके उनके नवनिर्माण की दिशा में रचनात्मक काय करके जिनवाणी और जैन धर्म व संस्कृति की रक्षा व संवर्द्धन किया है। विस्तारभय से हम इन सभी चातुर्मासों की उपलब्धियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख न करके दिल्ली, कलकत्ता एवं जयपुर के कुछ चातुर्मासों में उनकी मुनिचर्या, क्षमता, धर्मप्रभाव व रचनात्मक कार्यों का संकेत करेंगे।
दिल्ली के चातुर्मास
सन् १९८२ में जयपुर चातुर्मास के उपरान्त कोथली की ओर प्रस्थान करते हुए महानगरी दिल्ली को अपना विहारपथ बनाकर आचार्यरत्न श्री देश भूषण जी ने राजधानी को जो अपूर्व गौरव दिया था, उसके लिए दिल्ली का नागरिक समुदाय उनका हृदय से कृतज्ञ है । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी ने सर्वप्रथम २६ मई, १९५५ को अपनी पावन उपस्थिति से दिल्ली को अनुगृहीत किया था। आपने अपने मंगलप्रवेश के समय महानगरी के श्रावकों की सुप्त चेतना को जागृत करके मनुष्यभव की उपयोगिता का महामन्त्र देते हुए कहा था, "मनुष्य भव की सफलता तो उस धर्म आराधन से है जो कि देव पर्याय में भी नहीं मिलता और जिससे आत्मा का उत्थान होता है । जीव आत्मध्यान द्वारा अनादि परम्परा से चली आई कर्म-बेड़ी को तोड़कर सदा के लिए पूर्ण स्वतन्त्र, पूर्ण मुक्त भी हो सकता है।" उसी दिन आपने अपने अनुभवों के आधार पर दिल्ली के जैन समाज को अमृतकलश देते हुए चेतावनी रूप में परामर्श दिया था, "समय की गति अबाध्य है, पर्वत से गिरने वाली नदी का प्रवाह जिस तरह फिर लौटकर पर्वत पर नहीं जाता, इसी तरह आयु का बीता हुआ क्षण भी फिर वापिस नहीं आता, वह तो अपनी आयु में से कम हो जाता है । तब दुर्लभ नर जन्म पाकर मनुष्य जीवन के अमूल्य क्षणों में से एक क्षण व्यर्थ नहीं खोना चाहिए । आत्मकल्याण के कार्यों को करते चले जाना चाहिए । जो आज का समय है वह फिर कभी नहीं आएगा।"
आचार्यश्री ने अब तक राजधानी में आठ चातुर्मास सम्पन्न किए हैं। उनका दिल्ली प्रवेश एवं चातुर्मास सदैव सकारण होता रहा है। उनके विरक्त मन में शहर की सुविधाओं एवं चकाचौंध के लिए कोई आकर्षण नहीं है। आप वास्तव में परमयोगी हैं क्योंकि आपकी प्रेरणा का सूत्र महाकवि रत्नाकर वर्णी का कन्नड़ महाकाव्य 'भरतेश वैभव' है। आपने उस अध्यात्म ग्रंथ का अनुवाद ही नहीं
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ
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