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लक्ष्मण-मुर्छा के समय हिमालय पर्वत पर कालनेमि तथा ग्राही आदि पर विजय प्राप्त करना इत्यादि प्रसंगों का वर्णन कर उसके पराक्रम को बढ़ा दिया गया है।
जैन धर्म में तीर्थकरों (जो त्रिषष्टि शलाकापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ हैं) को आराध्य माना गया है तथा पउमचरिय (जैन रामायण) तथा उत्तरपुराण आदि ग्रन्थों के सभी पात्र चाहे वे राम (बलदेव) हों, लक्ष्मण (नारायण) हो, रावण (प्रतिनारायण) हो, जिनदेवों का उपासक कहा गया है। जिनदेव की भक्ति में उपसर्ग-सहित तपश्चरण के कारण अनंगशर चक्रवर्ती की पुत्री विशल्या ने रोगविनाशक सामर्थ्य प्राप्त किया था। लक्ष्मण की मूर्छा विशल्या के अभिषेक जल से ही दूर हुई थी। रावण ने जिनदेव की उपासना से ही वरदान-स्वरूप अमोघविजया शक्ति तथा चन्द्रहास खङ्ग प्राप्त की थी। जिनदेव अर्थात् तीर्थंकरों का निरादर करने पर महान् दुख का सामना करना पड़ता था। जिनपुजा को भंग करने के कारण सहस्रकिरण (रावण के विरुद्ध) तथा रावण (बालि के विरुद्ध) पराजय के पात्र बने। जिनमूर्ति को घर से बाहर निकालने के कारण अंजना (हनुमान की माता) को गृह-निर्वासन का दुःख भोगना पड़ा।
आनन्द रामायण में ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा शक्ति को आराध्य मान कर पात्रों द्वारा विष्णु-पूजा, शिव-पूजा, लिंग-पूजा आदि का स्थल-स्थल पर वर्णन किया गया है। रुद्र-पूजा के प्रचलन के कारण स्थल-स्थल पर हनुमद्भक्ति, स्तोत्र एवं कवच का वर्णन किया गया है। भक्ति के पल्लवित होने पर उक्त ग्रन्थ में कथा को भक्ति के सांचे में ढाला गया है जिसमें सीताहरण को रावण द्वारा राम के हाथ से मरकर मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास माना गया है। भक्ति के प्रचलन के कारण विभीषण, शुक तथा सारण को राम का भक्त कहा गया है। रावण तथा विराध के शरीर से दिव्य तेज का निकल कर राम में समाना, राम के हाथ से मर कर रावण की सायुज्य मुक्ति" तथा उसका (रावण का) राम से सर्वदा स्मरण रहने का वरदान प्राप्त करना आदि वृत्तान्त विष्णु-भक्ति के प्रचलन को सूचित करते हैं। उपर्युक्त देवों की उपासना के अतिरिक्त राम-कथा एवं कृष्ण-कथा (वध के अनन्तर बालि द्वारा द्वापर में भील रूप में जन्म लेकर राम (कृष्ण) के पैर को छेदना, राम द्वारा प्रेम-निमित्त आई हुई स्त्रियों को कृष्णावतार में क्रीड़ा करने का आश्वासन देना) का सम्बन्ध स्थापित कर कृष्णभक्ति का प्रचलन भी प्रर्दाशत किया गया है।
__ जैन धर्म में सागार धर्म जहां गृहस्थों के लिए है वहां अनागार धर्म का विधान मुनियों के लिए है। मुनिवृत्ति प्रव्रज्या-ग्रहण से प्रारम्भ होती है। जैन धर्म में प्रव्रज्या-ग्रहण का द्वार यद्यपि प्रत्येक के लिए खुला था तथापि कुछ अपवाद नियम थे। बाल, वृद्ध, जड़, व्याधिग्रस्त, स्तेन, उन्मत्त, अदर्शन, दास, दुष्ट, गुर्विणी को प्रव्रज्या देने का निषेध किया गया है। जैन ग्रन्थ पउमचरिय (जैन रामायण) में बालक होने के कारण भरत को प्रव्रज्या से रोका गया है । प्रव्रज्या से रोकने के लिए कैकेयी उसका विवाह करती है तथा दशरथ से वरदान स्वरूप भरत के लिए राज्य मांगती है।५ भरत को बाल-प्रव्रज्या से निवृत्त करने के लिए राम-लक्ष्मण स्वेच्छा से दक्षिण की ओर प्रस्थान करते हैं। आनन्द रामायण में राम का वनवास पिता की आज्ञा या भरत के बाल-प्रव्रज्या-निषेध के लिए नहीं है। वरन् राम देवताओं के वचन पालन (पहले राक्षसों का नाश कर बाद में राज्य करें)" रूप में वन-गमन करते हैं।
जैन ग्रन्थों-पउमचरियम्, जैन रामायण, उत्तर पुराण में जीवन के अन्तकाल में पात्रों (दशरथ, राम, भरत, शत्रुघ्न, वेदवती,
१. आनन्दरामायण, १/११/४६-६० २. पउमचरियम्, पर्व ६३, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, २८९-९१ ३. पउमचरियम्, पर्व ६४, वही, पृ०२८६-६१ ४. पउमचरियम्, पर्व ६४; वही, पृ० १३५-३६ ५. वही, पर्व १०, वही, पृ० १३७-४१ ६. वही, पर्व ८, वही, १३१-३५ ७. पउमरियम्, पर्व १५-१८, विषष्टिशलाकापुरुषचरित १० १७३ ८. आनन्दरामायण, सारकाण्ड, १२,१४७-४६,८१३-१६, सर्ग ७/५/५ ६. आनन्दरामायण, राज्यकाण्ड, १४/१-२७; १/११/२४४; १३/१२०-२१ १०. वही, १/१०/२१५-१६ ११. वही, १/७/१५-१७. १/११२८३ १२. वहीं, राज्यकाण्ड, सर्ग २० १३. वही, सारकाण्ड ८/६६-६८; राज्यकाण्ड, ४४४-४७ १४. जगदीशचन्द्र जैन : 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज', पृ० ३८४ १५. पउमरियम्, पर्व ३१,५७-७१ तक, जैन रामायण विषष्टिशलाकापुरुषचरित, पृ० २०६ १६. पउमचरियम, पर्व ३१, वही, पृ०२०१-१० १७. आनन्दरामायण, १/६/१-३
जैन साहित्यानुशीलन
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