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जैन राम कथा की विशिष्ट परम्परा
रामकथा जैन कवियों द्वारा विशेष सम्मान के साथ गृहीत हुई है। बौद्ध धर्मानुयायियों ने राम-विषयक मात्र 'तीन' जातक लिखे, किन्तु जैन धर्मानुयायियों ने अत्यन्त व्यापक रूप में संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं में 'राम कथा' को निबद्ध किया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकि से आरम्भ होकर रामकथा सबसे अधिक विस्तार के साथ 'जैन साहित्य' में ही अपनायी गयी । अपभ्रंश में तो राम एवं कृष्ण के पावन चरित्रों को केवल जैन कवियों द्वारा ही कथा-ग्रन्थों का आधार बनाया गया, तथा यह तथ्य विशेष उल्लेखनीय है कि प्रबन्ध क्षेत्र में लिखा गया अपभ्रंश का पहला महाकाव्य 'पउमचरिउ' है, जिसके प्रणेता महाकवि स्वयंभूदेव जैन मतानुपायी ये और 'यापनीय संघ' से सम्बद्ध थे ।
डॉ० योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण'
जैन - साहित्य में 'त्रिषष्टि शलाकापुरुषों' का स्थान सर्वोच्च है, जिनमें २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, बलदेव, ६ वासुदेव तथा प्रतिवासुदेव माने गये हैं। जैन मान्यता के अनुसार निरन्तर गतिमान सृष्टि तक की प्रत्येक उत्सर्पिणी' तथा 'अवसर्पिणी में इनका जन्म हुआ करता है। प्रत्येक 'बलदेव' का समकालीन एक 'वासुदेव' और उसका विशेषी 'प्रतिवासुदेव' होता है। वासुदेव अपने अग्रज बलदेव के साथ मिलकर प्रतिवासुदेव से युद्ध करके उसका वध करते हैं और इसी 'पाप' के कारण वासुदेव 'मरकर' नरक में जाते हैं और अनुज के शोक में बलदेव 'जैनधर्म की दीक्षा' लेकर अन्ततः मोक्ष प्राप्त करते हैं । जैन मतानुसार 'राम' वर्तमान अवसर्पिणी के त्रिषष्टि शलाकापुरुषों में वें बलदेव के रूप में समादृत हैं और लक्ष्मण तथा रावण क्रमशः वें वासुदेव और वें प्रतिवासुदेव हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन धर्म एवं संस्कृति में 'राम' को महत्त्वपूर्ण स्थान देकर हिन्दू परम्परा का पोषण किया गया है।
राम का नाम 'पदम क्यों ?
प्राकृत एवं अपभ्रंश में रचित राम-विषयक कथा-ग्रन्थों का नाम संस्कृत की परम्परा के अनुसार 'रामायण' आदि नहीं मिलता, प्रत्युत प्रत्येक भाषा में रचित जैन- रामकथा में 'राम' का नाम 'पद्म' (पउम ) है और जैन रामायण का नाम तदनुसार 'पउम चरिउ (पद्मचरित) है। ऐसा एक 'विशिष्ट' कारण से करना पड़ा है। ६३ शलाकापुरुषों के कम में वें बलदेव है 'बलराम' तथा वासुदेव एवं प्रतिवासुदेव हैं क्रमशः कृष्ण एवं जरासंध । चूंकि वें बलदेव 'राम' हैं तथा हवें बलदेव हैं 'बलराम', अतः नाम साम्य से सम्भावित गलतफहमी से बचने के कारण ही जैन कवियों ने 'रामचरित' को 'पउमचरिय' (पथचरित) कहा है।
इस विशिष्ट परिवर्तन से जैन राम कथा का रूप प्रचलित हिन्दू रामकथा से पूर्णतः पृथक् हो गया है। यहां राम के द्वारा रावण का वध नहीं होता, प्रत्युत लक्ष्मण के हाथों रावण की मृत्यु होती है तथा राम जैन धर्म की दीक्षा ले लेते हैं । स्वाभाविक है कि राम के 'शीलशक्ति-सौन्दर्य' वाले रूप की अवधारणा जैन राम - काव्यों में नहीं हो सकी ; प्रत्युत उन्हें 'सामान्य मानव' के रूप में 'सौन्दर्य' का ही अधिष्ठाता दिखाया गया है। यही कारण सम्भवतः जैन राम कथा के प्रचार-प्रसार में भी बाधक बना होगा, क्योंकि 'मानस' की लोकप्रियता के मूल में राम का शील शक्ति-सौन्दर्य वाला रूप है ।
जैन कवियों को 'राम-कथा' अत्यन्त प्रिय रही है और इसे श्वेताम्बर एवं दिगम्बर, दोनों ही मतावलम्बियों ने व्यापक रूप से अपनाया है। जैन राम कथा की दो धाराएं मिलती हैं (१) महाकवि विमलसूरि प्रणीत 'पउमचरियं' की परम्परा, तथा ( २ ) – गुणभद्राचार्य प्रणीत 'उत्तरपुराण' की परम्परा । महाकवि विमल सूरि ने प्राकृत में अत्यन्त विस्तार के साथ 'रामकथा' को लिया, जिसका संस्कृत छायानुवाद रविषेणाचार्य ने 'पद्मचरितं' के नाम से किया है । गुणभद्र की परम्परा अधिक नहीं चल सकी और अपभ्रंश में महाकवि पुष्पदन्त के पश्चात् कोई समर्थ महाकवि इस परम्परा को लेकर नहीं चल पाया ।
जैन साहित्य में अनेक विश्रुत कवियों की कृतियां संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में उपलब्ध हैं, जिनमें रामकथा को जैनधर्म, दर्शन
जैन साहित्यानुशीलन
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