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________________ अर्चना करती हुई दिखाई गई हैं । अन्ततः केश-लुंचन करके (सिर के बाल नोंचकर) मुनि से दीक्षा ग्रहण करती हैं । विमल सूरि की सीता के दीक्षा-गुरु सर्वगुप्त नामक मुनि हैं और स्वयंभू की सीता सर्वभूषण से दीक्षा लेती हैं। नायक राम के चरित से भी ऐसे अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं। सीतावरण के पश्चात् घर लौटने पर राम की जिन-वंदना (पउमचरिउ २२/१), वन-गमन की पूर्व रात्रि में जिनाराधना (पउम चरिउ २३/१०/१), वनवास में चन्द्रप्रभु की प्रतिमा का दर्शन (पउम चरियं २५/७/६), वंशस्थ नगर में मुनियों का उपसर्ग-निवारण आदि ऐसी ही घटनाएं हैं। पत्नी-वियोग से व्याकुल राम अपने को सांत्वना देने के लिए भी जिन-मन्दिर में प्रार्थना करते हैं। (पउमचरिउ, ४०/१८), सीता की प्राप्ति के पश्चात् भी शान्तिनाथ की स्तुति करते हैं। सीता के जिन-दीक्षा लेने के पश्चात वे तपस्वी हो जाते हैं । रत्नचूल और मणिचूल नामक दो देवताओं द्वारा ली गई परीक्षा में उत्तीर्ण हो वे केवली हो जाते हैं और सत्रह हजार वर्ष तक जीवित रहकर निर्वाण प्राप्त करते हैं।' गुणभद्र के राम सुग्रीव, विभीषण आदि पांच सौ राजाओं तथा १८० पुत्रों के साथ साधना करते हैं और ३६५ वर्ष बीतने पर उन्हें निर्वाण प्राप्त होता है। स्वयंभू के राम लक्ष्मण-वियोग से आतुर हैं। वे कोटिशिला पर तपश्चरण करते हैं और निर्वाण को प्राप्त होते हैं । 'पउमचरिउ' की मन्दोदरी ने सीताहरण के पश्चात् रावण को समझाते हए जो कुछ कहा है वह समस्त जैन धर्म का निचोड़ है। वास्तविकता यह है कि जैन साहित्य में 'राम-कथा' एक माध्यम मात्र है, जिसके द्वारा काव्य-प्रणेताओं ने जैन दर्शन के मूल-सिद्धांतों का, सातों तत्त्वों (जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष) का सम्यक निरूपण किया है। जैन रामकाव्यों में रावण-वध की भांति शम्बूक-वध भी राम द्वारा नहीं, लक्ष्मण द्वारा होता है (पउमचरियं, पर्व ४३)। बालि-वध भी लक्ष्मण ही तीक्ष्ण बाण से सिर काटकर करते हैं। वध करने के कारण ही लक्ष्मण चतुर्थ नरक में जाते हैं। इस कल्पना में जैन अहिंसावाद का प्रभाव स्पष्ट है । इससे राम की महत्ता कम नहीं होती । लक्ष्मण की प्रेरक शक्ति और मार्गदर्शक राम ही हैं। सफलता लक्ष्मण को मिलती है, आशीर्वाद राम का होता है । धर्मचर्चा और निःस्वार्थ कर्त्तव्य-परायणता में राम लक्ष्मण से आगे रहते हैं। धीरोदात्त नायक के समस्त गण राम में पाये जाते हैं। राम के चरित्र को एक महान् आदर्श जिन-भक्त के रूप में चित्रित किया गया है। निष्कर्ष यह है कि रामकथा और राम का चरित्र जैन परम्परा में अवतारवाद की आदर्श भावना से मुक्त, यथार्थ एवं युक्तिसंगत कथा-प्रसंगों पर आधारित, कर्मफलवाद और पुनर्जन्मवाद से पोषित ऐसी शुद्ध मानवीय गाथा है जिसके रूप-स्वरूप में अनेक धार्मिक, दार्शनिक व साहित्यिक धारणाएं सम्बद्ध हैं । जैन धर्म-ग्रन्थों में राम वर्तमान अवसर्पिणी के त्रेसठ शलाका-पुरुषों में आठवें बलदेव के रूप में समादृत हैं। मुनि महेन्द्रकुमार प्रथम का यह कथन पूर्णत: सत्य प्रतीत होता है कि आज के बुद्धि-प्रधान युग में जैन रामायणे बुद्धिगम्यता की दिशा में अधिक प्रशस्त मानी गई हैं; वहां अधिकांश घटनाएं स्वाभाविक और सम्भव रूप में मिलती हैं।' १. विमलसूरि : पउमचरियं पर्व ११०-११८ २. स्वयंभू : पउमचरिउ, सन्धि, ८८/१३ ३. गुणभद्र : उत्तरपुराण, ६८/४६३ ४. मुनि, महेन्द्रकुमार : अग्नि-परीक्षा, भूमिका, पृ०७ महाकवि स्वयम्भू हिन्दी-साहित्य की चर्चा अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं की भांति अपभ्रश-काल से आरम्भ होती है । यह अपभ्रंशकाल ईसा की छठी शती से लेकर ११वीं शती तक माना जाता है। आचार्य चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने 'पुरानी हिन्दी' शीर्षक निबन्ध में पहली बार प्रतिपादित किया कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं-राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, ब्रज, अवधी आदि-की मां अपभ्रंश है, संस्कृत नहीं। फिर तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'बुद्ध-चरित' की भूमिका में और पं० केशवप्रसाद मिश्र ने 'कीथ ऑन अपभ्रश' (इंडियन एण्टीक्वरी, १९३१) लेख में इसी सिद्धान्त को व्यापक रूप से समझाने की चेष्टा की। दूसरी ओर श्री राहुल सांकृत्यायन ने 'हिन्दी काव्य-धारा१६५५' लिखकर अपभ्रश का साहित्य भी प्रस्तुत कर दिया। हिन्दी में भाषा की दृष्टि से महाकवि स्वयम्भू-कृत 'पउम-चरिउ' का नाम सबसे पहले आता है। डॉ० नामवरसिंह के अनुसार वर्तमान हिन्दी की उत्पत्ति समझने के लिए पीछे स्वयम्भू-काल तक जाना अनिवार्य है। साहित्य की दृष्टि से स्वयम्भू निश्चित रूप से अपभ्रश का सर्व। श्रेष्ठ महाकवि था (पउमचरिउ-प्र० भारतीय विद्या-भवन, बम्बई)। भारतीय साहित्य में उसका स्थान वाल्मीकि, कालिदास, चन्द, सूर और तुलसी की परम्परा में है। श्री राहुल सांकृत्यायन स्वयम्भू को तुलसी से ऊंचे स्तर का कवि मानते हैं। श्री कृष्णाचार्य के निबन्ध 'हिन्दी पुस्तक जगत' से साभार (-राष्ट्रकवि 'मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन-ग्रन्थ' पृ० १८७) आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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