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________________ सीता द्वारा बनाया गया रावण-चित्र माना गया है। स्वयंभू ने पहले राम में लोकमत के प्रति आदरभाव सीता अपवाद के प्रसंग से दिखाया है किन्तु भूल ज्ञात होने पर राम के अनुताप का चित्रण भी सुन्दर किया है।' इसी प्रकार आचार्य तुलसी के राम भी बाद में पश्चात्ताप की अग्नि में झुलसते दिखाए गए हैं।" जैन साधु ब्रह्म जिनदास, गुणकीर्ति और विनयसमुद्र ने भी इस परम्परा में राम का चरितांकन अपने काव्यों में किया है। हिन्दू सम्प्रदाय में रावण आदि को राक्षस कहकर उन्हें निन्दा और भर्त्सना का पात्र ठहराया गया है। रावण के बाह्य और आन्तरिक रूपों में जो कुरूपता आ गई थी, जैन कवि उससे अत्यन्त क्षुब्ध थे । इसलिए पुष्पदन्त ने कहा है कि वाल्मीकीय रामायण और व्यास के वचनों पर विश्वास करने वाले लोग कुमार्ग-रूपी कुएं में गिर पड़ते हैं ( महापुराण ६२ / ३ / ११)। इन कुरूपताओं को दूर करते हुए कुछ जैन कवियों ने तो रावण को नायक पद पर प्रतिष्ठित करते हुए काव्य रचनाएं कीं । जिनराज सूरि और मुनि लावण्य ने पृथक्-पृथक् ‘रावण-मन्दोदरी-संवाद' नामक ग्रन्थों का प्रणयन रावण चरित्र की उत्कृष्टता सिद्ध करने के लिए ही किया । असंगतियों को यथासंभव अपने ग्रन्थों से दूर रखने के प्रयास ने और धार्मिक उदार दृष्टिकोण ने जैन रामकाव्यों को अनुपम विशिष्टता प्रदान की है । विद्याधर राक्षस और वानर-वंश के प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण हिन्दुओं से अधिक सहानुभूतिपूर्ण प्रतीत होता है। इस विषय में जैन धर्म की उदारता की प्रशंसा डॉ० हीरालाल जैन ने मुक्तकंठ से की है। वाल्मीकि ने जहां इनके वंशों का वर्णन अपनी कथा के उत्तरकांड में किया है, वहां जैन कवियों ने राम कथा का प्रारम्भ ही इनके विशद वर्णन से करना समीचीन समझा है । विमलसूरि ने पउमचरियं के ११८ उपदेशकों में से २० में, रविषेण ने पद्मपुराण के प्रथम १३ पर्वों में और स्वयंभू ने प्रथम १६ संधियों में राक्षसों, वानरों और विद्याधरों का वर्णन किया है। इन्होंने राक्षसों और वानरों को विद्याधर वंश की दो भिन्न मनुष्य जातियां कहा है। उन्हें कामरूपता एवं आकाशगामिनी विद्याएं सिद्ध थीं । विद्याधरों की उत्पत्ति के विषय में पउमचरियं में युक्तियुक्त वृत्तान्त मिलता है - श्री वृषभ ( प्रथम तीर्थंकर) ने तपस्या करने के उद्देश्य से सौ पुत्रों में से भरत को राज्य सौंपकर दीक्षा ली थी। बाद में नमि और विनमि उनके साथ पहुँचे और राजलक्ष्मी मांगने लगे । विविध विद्याएं देकर ऋषभनाथ ने उन्हें वैताढ्य पर्वत ( रविषेण के अनुसार विजयार्ध) अर्थात् विन्ध्य प्रदेश में अपना राज्य स्थापित करने का परामर्श दिया । ये नमि और विनमि राजकुमार ही विद्याधरों के पूर्वज हैं। ध्वजाओं और भवन-शिखरों पर वानर-चिह्न रहने के कारण ही विद्याधर वानर कहलाए। मेघवाहन नामक एक विद्याधर की दीर्घ सन्तान - परम्परा में राक्षस नामक ऐसा प्रभावशाली पुत्र हुआ कि उस वंश का नाम ही राक्षस वंश पड़ गया। हरिभद्र ने धूतयनम् (८वीं शताब्दी ई०) में तथा अमितगति में 'धर्म-परीक्षा' (११यों ०ई०) में वाल्मीकीय रामायण में वर्णित हनुमान के समुद्र-लंघन जैसी घटनाओं को असंभव और हास्यास्पद बताया है। ब्रह्म जिनदास ने हनुमंतरास तथा सुन्दरदास ने हनुमान-चरित को नया स्वरूप प्रदान किया। इन तर्कसंगत आख्यानों को लक्ष्य करके ही श्री मुनि पुण्यविजय ने कहा है"रामायण के विषय में जैनाचार्यों ने अपनी लेखनी ठीक-ठीक चलाई है । ४ रामकथा-सम्बन्धी घटनाओं को लौकिक रूप में चित्रित करने का प्रयास करते हुए जैनाचार्यों ने विद्याधर, राक्षस और वानर को एक ही मानवकुल की विभिन्न शाखाएं बताया। ये आपस में वैवाहिक सम्बन्ध भी करते हैं। इनके वर्णनों में हिन्दू देवताओं जैसे इन्द्र आदि के नाम भी आए हैं किन्तु जैन रामायणकारों ने उन्हें भी मनुष्य ही माना है और प्रत्येक को कभी न कभी जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण करते दिखाया है। पउमचरियं ( पर्व १०८ ) में हनुमान दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त करते हैं एवं विभीषण अपने पुत्र सुभूषण को राज्य सौंपकर जैन दीक्षा लेते हैं ( पर्व ११४) । बालि भी दशानन के साथ जीव-नाशक युद्ध न कर, सुग्रीव को राज्य सौंपकर दीक्षा ले लेता है। रावण की धार्मिक प्रवृत्ति जैन रामकाव्यों में कहीं-कहीं तो राम से भी बढ़ी हुई है। युद्ध काल में राम जिन-पूजा भूल जाते हैं, पर रावण नहीं भूलता । पम्परामायण का रावण जिन भक्त है। उसके महल में जिनेश्वर की पूजा प्रतिदिन होती है। इसके रचयिता ने रावण को महापुरुष के रूप में चित्रित किया है।" देव और दानव कुल का वर्णन करने पर यह संभव न होता । इसलिए इन कवियों ने अपने धर्म के प्रधान लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए हिन्दुओं के देव और दैत्य कुलों को भी मानव जाति में परिवर्तित करके उनका वर्णन किया है। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए जैन राम-कथाकारों ने पात्रों के चित्रण में जिन वन्दना और जैनधर्मोपदेश - कथन के अवसर बार-बार ढूंढ निकाले हैं। सीता भी वाल्यकाल से ही जिन भक्त हैं। जनमतावलम्बी राम की सहधर्मिणी होने के कारण अनेक अवसरों पर वह जिन १. पउमचरिउ, ८३/१६/४ २. आचार्य श्रीतुलसी अग्नि परीक्षा, पृ० पर ३. जैन, डा० हीरालाल भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, प० ४-५ ४. मुनि पुण्यविजय रामायण का अध्ययन, 'मैथिलीशरण गुप्त ५. डॉ० कामिल बुल्के रामकथा, पृ० ६४० ६. स्वयंभू : पउमचरिउ, १२/११/२ ७. नागचन्द्र पम्परामायण जैन साहित्यानुशीलन 'अभिनन्दन ग्रन्थ', पृ० ६७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only ५६ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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