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ऐलक दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् श्री देशभूषण जी ने अपने साधनामय जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए मुनियों के कठोर व्रतों का आचरण एवं अभ्यास आरम्भ कर दिया। उन्होंने मुनियों के लिए निश्चित २८ मूलगुण - पंच महाव्रत, पंच समिति, पंचेन्द्रिय निरोध, षडावश्यक एवं सप्त नियम का निर्दोष रूप से पालन किया । आत्मविशुद्धि का भाव उनमें प्रगाढ़तर होता गया ।
आचार्य श्री जयकीर्ति जी का संघ बिहार करते हुए सिद्धक्षेत्र कुन्तगिरि पहुंच गया। इस महान् क्षेत्र पर भगवान् श्री रामचन्द्र जी ने पुराकाल में श्री देशभूषण मुनि एवं श्री कुलभूषण मुनि के उपसर्ग दूर किए थे। आचार्य रविषेण के अनुसार वंशगिरि (कुंथलगिरि) पर भगवान् श्री रामचन्द्र जी ने बहुत-से जैन मन्दिर बनवाये थे। कुंथलगिरि के पौराणिक एवं आध्यात्मिक वैभव से चमत्कृत होकर ऐलक श्री देशभूषण जी ने आचार्य श्री जयकीर्ति जी महाराज से पुनः मुक्तिदायिनी दिगम्बरी दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। इस बार आचार्य श्री ने ऐलक देशभूषण की प्रार्थना को स्वीकार करके चतुविध संघ की उपस्थिति में उन्हें फाल्गुन सुदी पूर्णिमा सम्वत् १९६२ तदनुसार रविवार ८ मार्च १९३६ को मुनि दीक्षा से अनुगृहीत किया। पंचाध्यायीकार एवं बलाकार ने दिगम्बर सन्त के लिए वैराग्य की पराकाष्ठा एवं दयापरायणता को विशिष्ट गुण माना है और मुनि से कुछ अपेक्षाएँ की हैं, जो इस प्रकार हैं
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(अ) "वैराग्यस्य पराकाष्ठामधिरुवोऽधिकप्रभः । दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः" अर्थात् वंशव्य की पराकाष्ठा को प्राप्त होकर प्रभावशाली दिगम्बर यथाजात रूप को धारण करने वाले तथा दयापरायण साधु होते हैं । (पंचाध्यायी /३० /६७१)
(आ) "सीह-यय-बसह मिय-य-मद-यहि-मंदरि मनी खिदि उरगंबर सरिसा परम-पय विमन्गया साहू" अर्थात् सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी या उन्नत बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह गोचरी वृत्ति करने वाले, पवन के समान निःसंग या सब जगह बे-रोकटोक विचरने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्त्वों के प्रकाशक, सागर के समान गम्भीर, मेरु सम अकम्प व अडोल, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, क्षिति के समान सर्व प्रकार की बाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान अनियत वस्तिका में रहने वाले, आकाश के समान निरालम्बी व निर्लेप और सदाकाल परमपद का अन्वेषण करने वाले साधु होते हैं । ( धवला १/१, १.१ / गाथा ३३ / ५१ )
वस्तुतः मुनिदीक्षा ग्रहण से पूर्व ही श्री देशभूषण जी ने अपनी साधना एवं आचरण से वैराग्य की ऊंचाइयों का स्पर्श कर लिया था। इसीलिए आचार्य श्री जयकीति जी जैसे विलक्षण तपस्वी एवं साधक ने इन्हें मुनि दीक्षा प्रदान करके जैनधर्मानुयायियों को एक गतिशील धर्मचक्र प्रदान कर दिया ।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज स्वभाव से आत्मकेन्द्रित मुनि हैं । 'स्व' (आत्मा) एवं 'पर' (पुद्गल) के चिन्तन में उनका जीवन व्यतीत हुआ है। आत्मसाधक सन्त के रूप में वे निरन्तर संसार की असारता पर विचार करते हुए आत्मतल्लीन हो जाते हैं। समय की गति का निरूपण करते हुए वे प्राय: कहते हैं, "हमारा प्रत्येक पग श्मशान भूमि की ओर जा रहा है, प्रत्येक श्वास में आयु कम हो रही है, मृत्यु निकट आ रही है और प्रतिक्षण शक्ति क्षीण होती जा रही है फिर भी हम समझते हैं कि हम बढ़ रहे हैं।"
जैनधर्म में साधना को विकसित करने लिए व्रत, त्याग, यम, नियम, संयम इत्यादि का आश्रय लिया जाता है। आचार्य जी का सम्बन्ध एक ऐसे संघ से रहा है जिस संघ के त्यागी अपने कठोर व्रतविधान एवं नियम पालन के लिए राष्ट्र में प्रसिद्ध रहे हैं। परमपूज्य आचार्य श्री जयकीर्ति जी महाराज आत्मविशुद्धि के लिए बड़ी संख्या में उपवास किया करते थे। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में सिंहनिष्कीड़ित व्रत का अनुष्ठान किया था। उपवासों की दीर्घ परम्परा के कारण उनका शरीर क्षीण हो गया। व्रतों के आधिक्य के कारण उन्हें संग्रहणी रोग भी हो गया। जीवन की अन्तिम बेला में उन्होंने निस्पृह भाव से समाधि धारण कर ली। आचार्यजी ने चारों प्रकार के आहारों का त्याग, इच्छाओं का निरोध, अपनी गुप्तियों को अपने वश कर मन को णमोकार मंत्र में तल्लीन कर दिया और उसी महामन्त्र का जाप्य करते हुए इस नश्वर शरीर को त्याग दिया ।
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आचार्य श्री जयति जी महाराज के महाप्रयाण के पश्चात् इसी संघ के मुनि श्री महिसागर जी मुनि श्री नेमसागरजी, मुनि श्री शुभचन्द्र जी, क्षुल्लक सुभूति महाराज तथा क्षुल्लक जम्बूस्वामी जी विहार करते हुए आरा में आए। रात्रि में सभी त्यागीवृन्द ध्यानावस्थित थे । इसी समय कमरे में रोशनी के लिए रखी गई कंडील अकस्मात् भभक उठी और आस-पास के जीर्णं तृणों
कालजयी व्यक्तित्व
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