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________________ अंकुश लगाना आरम्भ कर दिया। अपने पहनने के लिए उन्होंने केवल उत्तरीय और अधोवस्त्र रखकर अन्य वस्त्रों का आजीवन त्याग कर दिया। आचार्य श्री जयकीर्ति जी का संघ श्री सम्मेदशिखर जी से विहार करता हुआ दुर्ग आ गया। श्री जयकीर्ति जी महाराज ने सन् १९३५ में दुर्ग (मध्यप्रदेश) में चातुर्मास स्थापित किया। बालगौड़ा ने सांसारिक दायित्वों की परम्परा से मुक्त होने के लिए अन्तिम बार घर के लिए प्रस्थान किया और पारिवारिक दायित्वों को कुशलतापूर्वक अन्तिम रूप देकर वे सदा-सदा के लिए धर्म की शरण ग्रहण करने की भावना से आचार्य श्री जयकीर्ति जी महाराज के संघ में आ गए। आचार्य श्री ने धर्मगुरु के रूप में बालगौड़ा को संघ में स्थान दिया और उसके चतुर्दिक विकास में वे स्वयं रुचि लेने लगे । आचार्य श्री की कृपा से बालगौड़ा का आध्यात्मिक विकास होने लगा । आचार्य श्री जयकीर्ति जी महाराज का संघ दुर्ग चातुर्मास सम्पन्न करके सुप्रसिद्ध तीर्थ रामटेक (नागपुर से २८ मील दूर) आया । बालगौड़ा ने भगवान् श्री शान्तिनाथ जी की मनोज्ञ प्रतिमा के दर्शन किए और आचार्य श्री से पुन: जैनेन्द्री दीक्षा देने का आग्रह किया। आचार्य श्री जयकीति जी महाराज ने बालगौड़ा की आन्तरिक भावना एवं त्यागवृति से सन्तुष्ट होकर उन्हें तीर्थक्षेत्र रामटेक पर मुनि दीक्षा देना स्वीकार कर लिया। बालब्रह्मचारी बालगौड़ा के लिए यह क्षण अविस्मरणीय था। वह भक्तिरस में अवगाहन करने लगा। उसने रामटेक के शताब्दियों पुराने जैन मन्दिर में भगवान् श्री शान्तिनाथ जी की १२ फुट ऊँची प्रतिमा का पंचामृताभिषेक एवं पूजन किया । आचार्य श्री द्वारा बालगौड़ा को रामटेक पर मुनि दीक्षा देने का समाचार विद्युत् गति से चारों ओर फैल गया। उन दिनों में मुनि दीक्षा अत्यन्त विरल थी । अतः दीक्षा समारोह को देखने के लिए हजारों श्रावकश्राविकाएं वहां एकत्र हो गए। ब्रह्मचारी बालगौड़ा की अल्पायु के कारण समाज के प्रतिनिधियों ने आचार्य जी से निवेदन किया कि इतनी छोटी अवस्था में किसी को मुनि दीक्षा देना उचित नहीं है । समाज के प्रतिनिधियों की भावना को देखते हुए आचार्य श्री जयकीर्ति जी ने ब्रह्मचारी बालगौड़ा को चतुविध संघ के समक्ष समारोहपूर्वक ऐलक दीक्षा दे दी और इसी अवसर पर आचार्य श्री ने बालब्रह्मचारी बालगौड़ा का आध्यात्मिक नामकरण 'देशभूषण' कर दिया। जैनधर्म के आचारग्रन्थ लाटी संहिता के अधिकार स० ७ पद्य संख्या ५५- ६२ में ऐलक के स्वरूप का विवेचन इस प्रकार किया गया है "उत्कृष्टः धावको लस्तथा एकादशस्यो द्वौ स्तो हो निर्भरको कमाल सगृह्णाति वस्त्र कौपीनमात्रकम् । तोच शिरोलोम्नां पिच्छिका व कमण्डलुम् पुस्तकादयुपधिश्चैव सर्वसाधारणं यथा सूक्ष्म चापिनगृही यादीषत्सावदकारणम् । कौपीनोपधिमात्रत्वाद् बिना वाचंयमी किया। विद्यते चैलकस्वास्य दुर्धरं व्रतधारणम् । तिष्ठश्यालये संधे वने या मुनिसंनिधौ निरवद्य ययास्थाने शुद्धे शून्यमठाविषु पूर्वोदितक्रमेणैव कृतकर्मावद्यावनात् ईषन्मध्याह्नकाले 4. भोजनार्थमटेत्पुरे। ईर्ष्यासमितिसंशुद्धः पर्यटे संख्यया । द्वाभ्यां पात्रस्थानीयाभ्यां हस्ताभ्यां परमश्नुयात् । दद्याद्धर्मोपदेशं च निर्व्याज मुक्तिसाधनम्। तपो द्वादशधा कुर्यात्प्रासादि वाचरेत् ।" अर्थात् उत्कृष्ट धावक दो प्रकार का होता है—एक शुल्क और दूसरा ऐसक इन दोनों के कर्म की निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक-अधिक होती रहती है ऐसक केवल कौपीनमात्र वस्त्र को धारण करता है, दाढ़ी, मूंछ और मस्तक के बालों का लोंच करता है और पीछी कमण्डलु धारण करता है । इसके सिवाय सर्वसाधारण पुस्तक आदि धर्मोपकरणों को भी धारण करता है । परन्तु ईषत् सावद्य के भी कारणभूत पदार्थों को लेशमात्र भी अपने पास नहीं रखता है । कौपीन मात्र उपाधि के अतिरिक्त उसकी समस्त क्रियाएँ मुनियों के समान होती हैं तथा मुनियों के समान ही वह अत्यन्त कठिनकठिन व्रतों का पालन करता है। वह या तो किसी चैत्यालय में रहता है, या मुनियों के संघ में रहता है अथवा किसी मुनिराज = समीप वन में रहता है अथवा किसी भी सूने मठ में वा अन्य किसी भी निर्दोष और शुद्ध स्थान में रहता है। पूर्वोक्त क्रम से समस्त क्रियाएँ करता है तथा दोपहर से कुछ समय पहले सावधान होकर नगर में जाता है । ईर्यासमिति से जाता है तथा घरों की संख्या का नियम भी लेकर जाता है । पात्रस्थानीय अपने हाथों में ही आहार लेता है । बिना किसी छल-कपट के मोक्ष का कारणभूत धर्मोपदेश देता. है तथा बारह प्रकार का तपश्चरण पालन करता है। कदाचित् व्रतादि में दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त लेता है । Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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