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को भस्म करती हुई मुनियों एवं क्षुल्लकों की पुआल में प्रविष्ट हो गई। मृत्यु एवं उपसर्ग को समीर देखकर संघ के मुनियों एवं क्षुल्लकों ने अनादिनिधन णमोकार मन्त्र की शरण ग्रहण की। इस उपसर्ग के कारण चार मोक्षाभिलाषी मुनियों एवं क्षुल्लकों ने इस जीवन की अंतिम गति प्राप्त की।
अपने संवनायक एवं संघस्थों के इन आदर्श उत्सर्गों को आचार्य श्री देशभूषण श्रद्धा की दृष्टि से देखते आए हैं और उन्हीं के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए उन्होंने अपने जीवनकाल में अगणित व्रत-उपवास किए हैं। मुनि श्री देशभूषण जी महाराज ने अपनो प्रारम्भिक साधना में व्रत-उपवास को विशेष महत्त्व दिया था। उन दिनों में एक कठोर तपस्वी के रूप में उन्होंने सर्वतोभद्र व्रत, महासर्वतोभद्र व्रत, वसन्तभद्र व्रत, त्रिलोकसार व्रत, वज्रमध्यविधि व्रत, मृदंगमध्यविधि व्रत, मुरजमध्यविधि व्रत, मुक्तावली व्रत और रत्नावली व्रत का अनुष्ठान किया था। इस प्रकार से मुनि श्री देशभूषग जी ने ६०४ दिनों में ४७१ उपवास किए और कूल १३३ पारणायें की।
उत्तर भारत के चातुर्मासों में आचार्यश्री का अधिकांश समय साहित्य समाराधना, पदयात्रा, भय एवं विशाल मन्दिरों की रूपरेखा के निर्धारण, धर्मदेशना, लोककल्याण की योजनाओं को दिशा देना, समाजसुधार एवं लोककल्याण के कार्यों में व्यतीत हुआ है। आचार्यश्री ने १९६१ एवं १९६२ के चातुर्मास मानगांव एवं अब्दुललाट में सम्पन्न किए तथा पर्वराज पर्दूषण के दसों दिन 'दशलक्षण धर्म व्रत' का अनुष्ठान किया और अनवरत आत्मा के धर्म पर विशेष प्रवचन किए।
आचार्यश्री के महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व को दृष्टिगत करते हुए सूरत के जैन समाज ने परमपूज्य आचार्य श्री पायसागर जी महाराज की सहमति से सन् १९४८ में आपको चतुर्विध संघ के अनुशासन के लिए आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। आचार्य रूप में श्री देशभषण जी के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर महानगरी दिल्ली के जैन समाज ने आपको 'आचार्यरत्न' की गौरवपूर्ण पदवी से समलंकृत किया ।
एक धर्माचार्य के रूप में आपने भारतवर्ष के अधिकांश भाग की पदयात्रा करके धर्म का जो अलख जगाया है, वह अविस्मरणीय है। आपने अपने वरद हस्त से लगभग सौ आत्माओं को कल्याणकारी दीक्षा दी है। आपके द्वारा दीक्षित मनि, आधिका. क्षुल्लक, क्षुल्लिका एवं ब्रह्मचारी लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष में पदयात्राएं करके तीर्थकर वाणी का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।
आचार्यश्री प्रायः पंचकल्याणक महोत्सवों एवं तीर्थक्षेत्रों पर दीक्षार्थियों को दीक्षित किया करते हैं। इस सम्बन्ध में उनकी मान्यता है कि पंचकल्याणक महोत्सव के समय अथवा तीर्थक्षेत्रों में शलाका पुरुषों के स्मरण से दीक्षार्थी की भावनाओं में वैराग्य की अनुभूतियां अत्यन्त प्रगाढ़ हो जाती हैं। आचार्य श्री द्वारा दीक्षित त्यागीवृन्द की क्रमानुसार सम्पूर्ण सूची आवश्यक सूचनाओं के अभाव में प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है, किन्तु समाचार पत्रों की कतरन एवं दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में यत्रतत्र प्रकाशित सामग्री के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य श्री ने सम्भवतया सर्वप्रथम २ अप्रैल १९४३ को सांगली जिले के भोसे गांव में शिवप्पा नामक धावक को मनि दीक्षा से अनुगहीत किया था। यही शिवप्पा मुनि श्री शांतिसागर जी महाराज के रूप में आनी धर्म-प्रभावनाओं के लिये प्रसिद्ध हुए।
उनके द्वारा दी गई अन्य प्रारम्भिक दीक्षाओं में क्षुल्लक आदिसागर जी (सन् १९४६), आर्यिका शान्तिमति जी एवं मुनि श्री सूबलसागर जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके द्वारा दीक्षित परवर्ती मुनियों में एलाचार्य महामुनि श्री विद्यानन्द जी एवं आर्यिकारत्न ज्योतिर्मयी ज्ञानमति जी ने तीयंकर वाणी एवं जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान देकर आचार्य श्री के महान् ध्येय की पूर्ति में अविस्मरणीय योगदान किया है ।
आचार्यश्री वास्तव में एक अध्यात्मपुरुष हैं। उनके संसर्ग में आनेवाला पुण्यात्मा दीक्षार्थी मुक्ति के पथ पर अग्रसर होने लगता है। आचार्यश्री के महातेज के सम्मुख नतमस्तक होकर महाराष्ट्र मंत्रीमंडल के एक पूर्व सदस्य ने, जो खोत साहब के नाम से सुविख्यात थे, आचार्यश्री से मुनिदीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण का पथ चुना था। कालान्तर में यही खोत साहब मुनि श्री सिद्धसेन जी के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
सन् १९८१ में भगवान् बाहुबली सहस्राब्दि प्रतिष्ठापना समारोह के अवसर पर आचार्यस्त्त देशभूषण जी को जैन मुनि संघ एवं लाखों प्रावक-श्राविकाओं के सम्मुख 'सम्यकत्व चूडामणि' की उपाधि से विभूषित किया गया। इस समारोह में दीर्घावधि के पश्चात बड़ी संख्या में दिगम्बर जैन सन्त एकत्र हुए और उन्होंने आपके सान्निध्य में दिगम्बर जैन सन्तों की आचार संहिता पर पुनर्विचार
आचार्यरत श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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