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________________ अपभ्रश चरित काव्यों एवं मध्यकालीन चरित काव्यों में कुछ बाह्य समानताएं भी रोचक हैं। अपभ्रश काव्यों में मंगलाचरण, देश, नगर तथा राजा-रानी के वर्णन बड़े सरस रूप में मिलते हैं। देश, नगर के वर्णन ग्राम्य सरलता को लिए हुए बहुत ही मौलिक कल्पनाओं से युक्त होते हैं । जसहर चरित और पद्मावती के इस प्रकार के वर्णन एक समान ही सुन्दर हैं। दुर्जन तथा भाषा के संबंध में अपभ्रश कवियों ने कृतियों के आदि में लिखा है और यह हमें तुलसी के 'मानस' में भी मिलता है। xxxx इनके अतिरिक्त सबसे बड़ा प्रभाव जो अपभ्रंश चरित काव्यों का हिन्दी के चरित-काव्यों पर पड़ा है वह है काव्य के परिधान छन्दों के प्रयोग में।xxxx अपभ्रश चरित काव्यों में पज्झटिका, अडिल्ला, रड्डा तथा अन्य कई छन्दों का प्रयोग हुआ है, प्रधानता पज्झटिका की है। इन छन्दों की कुछ पंक्तियां रखकर एक पत्ता जोड़कर एक कडवक पूरा होता है। कभी-कभी कडवक के प्रारम्भ में हेला, दुवई, वस्तु आदि छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं। ऐसे कडवक एक सन्धि में कई होते हैं। प्रायः 'चतुष्पदी' वर्गों के छन्दों का प्रयोग हुआ है लेकिन अपभ्रश कवियों ने द्विपदी के समान उनका प्रयोग किया है। ज्यों-का-त्यों इस पद्धति को हिन्दी के चरित-काव्य रचयिताओं ने अपना लिया है। घत्ता के स्थान पर दोहा रखा है, लय तथा लोकप्रियता के कारण तथा सिद्ध-अपभ्रंश-साहित्य के प्रभाव स्वरूप भी।" लोक भाषाओं के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने प्रांजल, प्रौढ़, उदात्त संस्कृत और नाना जनपदीय भाषाओं-तमिल, कन्नड, गुजराती एवं तेलुगु में विशाल साहित्य की रचना की है। आचार्य जिनसेन स्वामी का आदिपुराण संस्कृत साहित्य की उत्कृष्ट रचनाओं में माना जा सकता है । आदिपुराण (पर्व १/७४) में रससिद्ध कवियों से अपेक्षा करते हुए आचार्य जिनसेन ने लिखा है कि बुद्धिमानों को शास्त्र और अर्थ का अच्छी तरह अभ्यास कर तथा महाकवियों की उपासना करके ऐसे काव्य की रचना करनी चाहिए जो धर्मोपदेश से युक्त हो, प्रशंसनीय हो और यश को बढ़ाने वाला हो। इस प्रसंग में महाकवि के यशस्वी स्वरूप का विवेचन करते हुए आचार्य जिनसेन ने जो प्रशस्ति की है उसका भाव यह है प्रतिभा जिसकी जड़ है, माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि गुण जिसकी उन्नत शाखाएं हैं और उत्तम शब्द ही जिसके उज्ज्वल पत्ते हैं ऐसा यह महाकविरूपी वृक्ष यशरूपी पुष्पमंजरी को धारण करता है। बुद्धि ही जिसके किनारे हैं, प्रसाद आदि गुण ही जिसकी लहरें हैं, जो गुणरूपी रत्नों से भरा हुआ है, उच्च और मनोहर शब्दों से युक्त है, तथा जिसमें गुरुशिष्य परंपरा रूप विशाल प्रवाह चला आ रहा है ऐसा यह महाकवि समुद्र के समान आचरण करता है। जैन साहित्यकारों ने युगीन परिस्थितियों का अनुभव करते हुए संस्कृत में उत्कृष्ट साहित्य की रचना की और अनेक प्राकृत ग्रन्थों का संस्कृत में पद्यानुवाद किया। इसके विपरीत जैनेतर समाज ने एक भी संस्कृत धर्मग्रन्थ का प्राकृत में अनुवाद नहीं किया। अनेक जनपदीय भाषाएं-कन्नड, तमिल, तेलुगु, गुजराती आदि जैनाचार्यों की ऋणी हैं । उपरोक्त सभी भाषाओं के आरंभिक काल की अधिकांश रचनाएं जैन कवियों की देन हैं। कन्नड साहित्य के स्वर्णयुग में महाकवि पम्प, पोन्न, रन्न, नागवर्मा का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इन कवियों ने रामायण एवं महाभारत के कथानकों को लेकर कन्नड साहित्य का अभूतपूर्व शृंगार किया है। प्रतिपक्ष के कर्ण एवं दुर्योधन का इतना सजीव चित्रण भारतीय साहित्य में अन्यत्र नहीं मिलता। महाकवि पंप की कृति 'विक्रमार्जुन विजय' को कर्ण रसायन भी कहा जाता है । इस ग्रन्थ के अध्याय १२/२१७ में कर्ण की प्रशस्ति में कहा गया है कि महाभारत के पात्रों में यदि किसी का स्मरण करना है तो वह कर्ण का ही चरित्र है । कर्ण की सच्चाई, त्याग और वीरता का उत्कृष्ट रूप अन्यत्र नहीं मिलेगा। कन्नड साहित्य के स्वर्ण युग की परंपरा को प्राणवान् बनाने में जैन साहित्यकार दुर्गसिंह, नयसेन, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र, जन्न, रत्नाकर वर्णी का विशिष्ट योग रहा है। कन्नड साहित्य की भांति तमिल साहित्य की प्रारम्भिक साहित्यिक गतिविधियों का श्रेय भी जैनाचार्यों को है। जलप्लावन से पूर्व संघकाल की एकमात्र उपलब्ध रचना तोल्काप्पियर कृत व्याकरण 'तोल्काप्पियम' एक जैन मुनि की ही देन है। कुरल काव्य में प्रयुक्त 'मलरमिसइ योगिनान' और 'येनगुननथान' जैन शब्दावली है, जिनका अर्थ क्रमश: 'जो कमल पर चलता है' (भगवान का एक अतिशय) और 'आठ गुणसहित' है। विदेशी विद्वान् जेम्स डी० बी० ग्रिबल ने सन १८७५ में प्रकाशित 'तमिल काव्य' में तिरुवल्लवर को जैन कवि माना है। तमिल साहित्य की महत्त्वपूर्ण रचना 'नालडियार' भी सन्तों की देन है। तमिल साहित्य में पांच महाकाव्य हैं-शिलप्पदिकारम, वलयापति, चिन्तामणि, कुण्डल के शी और मणिमेखले । इनमें प्रथम तीन जैन लेखकों की कृतियां मानी जाती हैं। तमिल के पांच विख्यात लघुकाव्य भी जैन साहित्यकारों की देन हैंनीलकेशी, चूड़ामणि, यशोधर कावियम्, नागकुमार कावियम् तथा उदयणन कथ। प्राचीन जैन तमिल कृतियों में मेरुमन्दर पुराण, श्रीपुराण, कलिंगुत्तुप्परनि, याप्यरुंगलम्कारिक, नेमिनाथम्, नन्नू लू, तिरुनूरन्तदि, तिरुक्कलम्बगम आदि उल्लेखनीय हैं। __ तमिल और कन्नड की भांति तेलुगु भाषा के आरम्भिक साहित्य की अधिकांश रचनाएं जैन मुनियों की थीं, किन्तु धार्मिक विद्वेष के कारण इन रचनाओं को जला दिया गया। श्री बालशौरि रेड्डी ने 'तेलुगु साहित्य' नामक पुस्तक में उपयोगी जानकारी देते हुए अनेक जैन साहित्यकारों का श्रद्धापूर्वक उल्लेख किया है। उनकी दृष्टि में महाकवि नन्नय भट्ट के द्वारा महाभारत के प्रणयन से पूर्व निश्चित रूप से आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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