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किन्तु महाकवि स्वयंभू ने विनम्रतापूर्वक अपनी अल्पज्ञता को पउमचरिउ संधि १/३ में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है—“मैंने व्याकरण तो कभी जाना ही नहीं; और न मैंने वृत्ति, सूत्रों की व्याख्या की है। और न ही मैंने प्रत्याहारों में पूर्णता प्राप्त की है। सन्धियों के ऊपर भी मेरी बुद्धि कभी स्थिर नहीं रह सकी। न तो मैंने सात प्रकार की विभक्तियाँ सुनी और न छह प्रकार की समास उक्तियां। मैंने छह कारक, दस लकार, बीस उपसर्ग और बहुत से प्रत्ययों को भी नहीं सुना। मैं सामान्य भाषा में यत्नपूर्वक कुछ आगम-युक्ति गढ़ता हूं और चाहता है कि ग्रामीण-भाषा से हीन, मेरे यह सुवचन सुभाषित बचन हों।" शास्त्रीय परम्परा एवं व्याकरण शास्त्र का समुचित पालन करते हुए भी अपभ्रश के कवियों ने अपनी रचना को भी जिनेन्द्रदेव की कृपा का प्रसाद माना है। महाकवि पुष्पदन्त ने महापुराण (सन्धि ३८/६) में भक्तिपूर्वक निवेदन किया है
__ 'मज्झ क इत्तणु जिणपयभत्तिहि पसरइ णाउ णियजीवियवित्तिहि।' अर्थात् जिनपद भक्ति मेरा कवित्व है, अपनी जीविका-वत्ति के लिए वह प्रसारित नहीं होता।
अपभ्रंश भाषा द्वारा साहित्यिक रूप ग्रहण कर लेने पर हिन्दी तथा अन्य प्रादेशिक भाषाओं-राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, ब्रज, अवधी आदि का उदय हुआ। हिन्दी भाषा एवं साहित्य के क्रमिक विकास की वास्तविक जानकारी के लिए अपभ्रंश भाषा की साहित्यिक गतिविधियों का परिज्ञान अत्यावश्यक है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल पर जैन एवं बौद्ध प्रभाव को स्वीकार करते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है
"वस्तुतः आरम्भिक हिन्दी साहित्य में जो भी मिल जाता है, उसके पीछे निश्चित रूप से एक दीर्घ परम्परा रही है । बौद्धों और जैनों के बिखरे हए अपभ्रश साहित्य में उन बातों का मूल पाया जा सकता है, जो आगे चलकर योगपरक रूपकों, प्रहेलिका जैसी लगने बाली उलटबांसियों, निर्गण और निराकार देवता की स्तुति गाने वाले पदों, जाति-पांति की संकीर्णता का खण्डन करने वाले दोहों और गानों में उन मल तत्त्वों का मिल जाना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। निर्गुण संतों की साधना यद्यपि भक्ति द्वारा प्रभावित हो गई थी तथापि मूलत: वह ब्राह्मण-विरोधी सम्प्रदायों में प्राप्त होने वाली साधना का ही विकसित रूप है। इसी प्रकार सगुण भक्तों के साहित्य में जितनी भी शैलियां, जितने भी काल-रूप और जितने भी छंदों-विधान पाए जा सकते हैं, उन सब का कुछ-न-कुछ मूल पूर्ववर्ती साहित्य में मिलना चाहिए।'
योगपरक जैन साधना का नाथ सम्प्रदाय के सन्तों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इसीलिए नाथ सम्प्रदाय के साहित्य में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जैन प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। नाथ सम्प्रदाय का ऐतिहासिक विवेचन करते हुए डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है
'चांदनाथ सम्भवतः वह प्रथम सिद्ध थे जिन्होंने गोरक्षमार्ग को स्वीकार किया था। इसी शाखा के नीमनाथी और पारसनाथी नेमिनाथ और पार्श्वनाथ नामक जैन तीर्थंकरों के अनुयायी जान पड़ते हैं । जैन साधना में योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नेमिनाथ और पार्श्वनाथ निश्चय ही गोरक्षनाथ के पूर्ववर्ती हैं। उनका यह सम्प्रदाय गोरक्षनाथ योगियों में अन्तर्भुक्त हुआ है । यह कहना व्यर्थ है कि जैन मत वेद और ब्राह्मण की प्रधानता नहीं मानता।"
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल पर अपभ्रंशकालीन जैन कवियों के प्रभाव का साधिकार विवरण देते हुए सुप्रसिद्ध समालोचक डॉ० रामसिंह तोमर ने महादेवी वर्मा अभिनन्दन ग्रन्थ में संकलित अपने 'अपभ्रश के चरित काव्य' शीर्षक निबन्ध में ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करते हुए लिखा है
__ "(अपभ्रंशकालीन) चरित काव्यों को दृष्टि में रखकर हिन्दी साहित्य का अध्ययन करते समय हमारा ध्यान हिन्दी के प्रारम्भिक काल में लिखे गए इस प्रकार के चरित काव्यों की ओर जाता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस प्रकार की कृतियां कुतुबन की 'मगावती', मंझन की 'मधुमालती', और जायसी की 'पद्मावती' हैं। प्रेम, चमत्कारपूर्ण वर्णन, सरल और सरस काव्यमय वर्णन तथा कहीं-कहीं आध्यात्मिक संकेत इन रचनाओं की विशेषता है। बाह्यावरण (अर्थात् छंदक्रम) इनमें समान हैं। तीनों के विषय में बहुत समानता है।" xxxx जायसी ने 'श्री पंचमी' व्रत का उल्लेख किया है, जैन कृतियां प्राय: किसी-न-किसी ब्रत के माहात्म्य के दृष्टांत के रूप में लिखी कही गयी हैं । भविष्यदत्त कथा 'श्रुतपंचमी' व्रत का दृष्टान्त है । सुदर्शन चरित भी पंचमी व्रत का दृष्टान्त है। और भी रचनाएं इस प्रकार की अनेक हैं।xx
१. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य का सांस्कृतिक महत्त्व' शीर्षक लेख, मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ०६४१ २. नाथ सम्प्रदाय, पृ० १५५
जैन साहित्यानुशीलन
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