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व्यवस्था करना एक आवश्यक कार्य है। जैन आचार्यों और विद्वानों की एक और विशेषता उनकी रचनाओं की व्यापकता है। प्रायः सभी की भाषा प्राकृत है, परन्तु उनकी साहित्यिक परिधि महावीर स्वामी के उपदेश और धार्मिक विषयों के विवेचन तक ही सीमित नहीं। जैन श्रमणों ने लोक भाषा को साहित्य का वाहन बनाया था। उन युगों की देश की लोकभाषा प्राकृत थी। इस कारण प्राकृत भाषा में आज विपुल साहित्य मिल रहा है, शिलालेख मिल रहे हैं, सिक्के मिल रहे हैं । सुनते हैं कि इस भाषा में छोटे-बड़े, प्रत्येक विषय के मिलाकर एक हजार के करीब ग्रन्थ हैं । महावीर के उपदेश संबंधी धार्मिक ग्रन्थसूत्र नियुक्तियां, चूणिया, भाष्य, महाभाष्य, टीका आदि के ३०० से ३५० ग्रन्थ हैं। धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त लौकिक साहित्य भी, जैसे काव्य, छन्द, नाटक, कोष, गणित, मुद्राशास्त्र, रत्नपरीक्षाशास्त्र, ऋतुविज्ञान, जातीय विज्ञान, भूगोल, ज्योतिष, शिल्प कहानियाँ, चरित्र कथानक, प्रवास कथा आदि मानव जीवन से संबंध रखने वाले सभी विषयों पर उत्तमउत्तम ग्रन्थ जैन श्रमणों ने प्राकृत भाषा में लिखे हैं, और जो भी उन्होंने लिखा, बड़ी बारीक छानबीन के साथ विस्तार से लिखा है।"
संस्कृत की भांति प्राकृत भाषा को संस्कारित करने के लिए व्याकरण शास्त्र की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा। ऐसी स्थिति में लोकभाषा अपभ्रंश ने किन्हीं कारणों से राष्ट्रीय भाषा का रूप ग्रहण कर लिया। जैन साधकों ने धर्मप्रचार के लिए अपभ्रंश को उदारतापूर्वक मान्यता दी और इस प्रकार जैन मुनियों की पावन वाणी एवं मेधा का संस्पर्श पाकर अपभ्रश समग्र राष्ट्र की साहित्यिक भाषा बन गई। मध्यकालीन भारतीय समाज में अपभ्रश भाषा एवं काव्य की लोकप्रियता का अनुमान डॉ० हरिवंश कोछड़ के निबन्ध 'अपभ्रश नाट्य साहित्य' की प्रस्तुत पंक्तियों से लगाया जा सकता है
"राजशेखर (१०वीं शताब्दी) ने राजसभा में संस्कृत और प्राकृत कवियों के साथ अपभ्रंश-कवियों के बैठने की योजना भी बताई है। इससे स्पष्ट होता है उस समय अपभ्रंश कविता भी राज-सभा में आदृत होती थी। उसी प्रकरण में भिन्न-भिन्न कवियों के बैठने की व्यवस्था बताते हए राजशेखर ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश कवियों के साथ बैठने वालों का भी निर्देश किया है। अपभ्रश कवियों के साथ बैठने वाले चित्रकार, जौहरी, सुनार, बढ़ई आदि समाज के मध्यम कोटि के मनुष्य होते थे। इससे प्रतीत होता है कि संस्कृत कुछ थोड़े-से पण्डितों की भाषा थी. प्राकत जानने वालों का क्षेत्र अपेक्षाकृत बड़ा था। अपभ्रश जानने वालों का क्षेत्र और अधिक विस्तृत था एवं उसका सम्बन्ध जन-साधारण के साथ था । राजा के परिचारक वर्ग का 'अपभ्रंश भाषण प्रणव' होना भी इसी बात की ओर संकेत करता है।"
अपभ्रंश भाषा की जीवन क्षमता, उदारता, विशिष्टता, व्यापकता, लोकप्रियता आदि को दृष्टिगत करते हुए गुजराती के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी ने अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ३३वें अधिवेशन (उदयपुर सन् १९४६) के अवसर पर अध्यक्षीय भाषण में यह सुझाव दिया था कि "जैसे अपभ्रंश के सत्ताईस रूप थे, वैसे ही शुरू में इसके (हिन्दी के) भी सत्ताईस रूप हों।"
ऐतिहासिक एवं साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि अपभ्रश का साहित्य किसी समय प्रचुर मात्रा में रहा होगा। वर्तमान में उपलब्ध अपभ्रश साहित्य का अधिकांश भाग जैन साहित्यकारों की देन है, अतः यह मानना उचित होगा कि अपभ्रंश के साहित्यकारों का प्रधान लक्ष्य धर्म के प्रचार-प्रसार का रहा है।
धर्मप्राण अपभ्रंश कवि प्रायः सिद्धपुरुष रहे हैं। सांसारिक सुखों एवं प्रलोभनों से वे बहुत दूर थे। इस सम्बन्ध में महापुराण की पूर्वपीठिका में एक सुन्दर कथानक मिलता है : ।
महापुराण के रचयिता महाकवि पुष्पदन्त नन्दनवन में विश्राम कर रहे थे। दो धर्मानुरागी श्रावकों ने वन्दना करते हुए निवेदन किया—"हे पाप के अंश को नष्ट करने वाले महाकवि, आप इस उपवन में एकान्तवास क्यों करते हैं ?" यह सुनकर महाकवि पुष्पदन्त ने आत्मवैभव से मंडित दिगम्बर मुनि के अनुरूप उत्तर दिया-"पहाड़ की गुफा में घास खा लेना अच्छा है किन्तु कलुषभाव से अंकित दुर्जनों की टेढ़ी भौंहें देखना अच्छा नहीं है !"
स्वाभिमान मेरु महाकवि पुष्पदन्त का सटीक उत्तर तत्कालीन अपभ्रश साहित्यकारों की विशिष्टता का द्योतक है। महापंडित राहल सांकृत्यायन ने महाकवि स्वयम्भू के अगाध पांडित्य एवं कवित्व शक्ति की मुक्त कंठ से सराहना करते हुए 'मेरी जीवन यात्रा' (सन् १९४४) में एक स्थल पर लिखा है
"पुराने कवियों की कृतियों को देखते-देखते मैं ८वीं सदी के महान् कवि स्वयंभू की रामायण (पउमचरिउ) को पढ़ने लगा। मुझे पढ़ते-पढ़ते बहुत आश्चर्य और क्षोभ होने लगा । आश्चर्य इसलिए कि इतने बड़े महान् कवि को मैं जानता नहीं था-पिछले तेरह सौ वर्षों के हिन्दी काव्य क्षेत्र में स्वयंभू के जोड़ का कोई कवि नहीं हुआ-सूरदास और तुलसीदास को लेते हुए भी। मैं तो समझता हूँ, भारतीय वाङ्मय के १२ कवि-सूर्यों में स्वयंभू एक हैं।"
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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