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________________ साहित्य सृजन किया है उसमें उनकी अद्वितीय प्रतिभा की सुस्पष्ट झलक मिलती है। संस्कृत साहित्य का ऐसा कोई विषय या क्षेत्र नहीं बचा है जिस पर जैनाचार्यों ने अपनी लेखनी न चलाई हो। अभी तक जैनाचार्यों द्वारा रचित जो ग्रन्थ प्रकाशित किए गए हैं वह उनके द्वारा रचित उस विशाल साहित्य का अंश मात्र ही है। अभी ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं जो विभिन्न मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित पड़े हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं जिनका उल्लेख आचार्यों की अन्यान्य कृतियों तथा विभिन्न माध्यम से मिलता है, किन्तु वर्तमान में वे उपलब्ध नहीं हैं। जैनाचार्यों के ऐसे ग्रन्थों को प्रकाश में लाकर उनके सम्पादन व प्रकाशन की समुचित व्यवस्था किया जाना नितान्त आवश्यक है। समग्र जैन साहित्य का परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि बहुमुखी प्रतिभा, प्रकाण्ड पाण्डित्य और विलक्षण वैभव के धनी जैनाचार्य केवल एक विषय के ही अधिकारी नहीं थे, अपितु वे प्रत्येक विषय में निष्णात थे और उस विषय का अधिकार पूर्वक व्याख्यान करने की उनमें अपूर्व क्षमता थी। अतः उनके विषय में यह कहना संभव नहीं था कि वे किस विषय के अधिकार सम्पन्न विद्वान हैं अथवा उनका अधिकृत विषय कौनसा है? उन्होंने जिस किसी भी विषय पर लेखनी चलाई उसी में उन्होंने अपने वैदुष्य की गहरी छाप छोड़ी। दीर्घकालीन अध्ययन, मनन और चिन्तन के परिणाम स्वरूप ग्रंथ निबन्धन के रूप में जो नवनीत उनकी लेखनी से समुदभूत हआ वह स्वार्थ साधन हेतु नहीं था, अपितु लोक कल्याण की भाबना उसके मूल में निहित थी। परमार्थ उनके चिन्तन का केन्द्र बिन्दु था और उसी भावना से वे प्रेरित थे। इसका एक कारण यह था कि अधिकांश ग्रंथकः दिगम्बर जैन निर्गय साधु थे और सांसारिक आसक्ति से सर्वथा शून्य होने के कारण आत्म कल्याण के साथ-साथ परमार्थ साधन ही उनके साहित्य सृजन का मूल उद्देश्य था। अपने ज्ञान और अनुभव से निःसृत विचार कणों को ग्रथित कर उन्होंने समग्र मानव समाज, देश और संस्कृति का जो उपकार किया वह अकथनीय है। जैनाचार्यों को यद्यपि मूलतः अध्यात्म विद्या ही अभीष्ट रही है, तथापि धर्म, दर्शन, न्याय आदि विषय भी उनकी ज्ञान परिधि में व्याप्त रहे हैं । यही कारण है कि जिस प्रकार उन्होंने उक्त विषयों पर आधारित विविध उत्कृष्टतम ग्रंथों की रचना की उसी प्रकार उन्होंने व्याकरण, कोष, काव्य-छंद, अलंकार, नीति शास्त्र , ज्योतिष और आयुर्वेद विषयों पर भी साधिकार ग्रंथों का प्रणयन कर अपने चरम ज्ञान और अद्भुत बुद्धि-कौशल का परिचय दिया। उपलब्ध अनेक प्रमाणों से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि जैनाचार्यों ने प्रचुर मात्रा में स्वतंत्र रूपेण आयुर्वेदीय ग्रंथों का निर्माण कर न केवल आयुर्वेद साहित्य की वृद्धि में अपना योगदान किया है, अपितु जैन वाङमय को भी एक लौकिक विषय के रूप में साहित्यिक विधा से अलंकृत किया है। अत: यह कहना सर्वथा न्यायसंगत है कि आयुवेद साहित्य के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गई सेवा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति । उनके द्वारा रचित साहित्य में कतिपय मौलिक विशेषताएँ विद्यमान हैं जो अन्य साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। उनके द्वारा रचित वैद्यक ग्रंथ आयुर्वेद सम्बन्धी कतिपय ऐसे तथ्यों को उद्घाटित करते हैं जो वैदिक कालीन आयुर्वेद के ग्रंथों में नहीं मिलते हैं। इस विषय पर व्यापक तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। प्राचीन भारतीय अध्ययन पद्धति की यह विशेषता रही है कि उसमें एक शास्त्रज्ञता की अपेक्षा बहुशास्त्रशता पर अधिक जोर दिया गया है। क्योंकि एक शास्त्राभ्यासी अपने अधिकृत विषय में नैपुण्य प्राप्त नहीं कर सकता । आचार्य कहते हैं एक शास्त्रमधीयानो न विद्याच्छास्त्रनिश्चयम् । तस्माबद्धहुश्रुतः शास्त्रं जानीयात् ।। -सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान ४/७ अतः विषय या शास्त्र की पूर्णज्ञता एवं शास्त्र के विनिश्चय के लिए अन्य शास्त्रों का अध्ययन और साधिकार ज्ञान अपेक्षित है। यही कारण है कि जिन जैनाचार्यों ने धर्म, दर्शन, न्याय, काव्य, अलंकार, व्याकरण, ज्योतिष आदि विषयों को अधिकृत कर विभिन्न अन्यों का प्रणयन किया, उन्हीं आचार्यों ने वैद्यक विषय को अधिकृत कर अन्यान्य आयुर्वेदीय ग्रन्थों की रचना कर अपनी बहु शास्त्रज्ञता का तो परिचय दिया ही, अपनी अलौकिक प्रतिभा का भी परिचय दिया है। प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी, जैन साधु जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र परमपूज्य स्वामी समन्तभद्र, आचार्य जिनसेन, गुरू वीरसेन, उद्भट मनीषि कुमदेन्दु, आचार्य प्रवर सोमदेव, महापण्डित माशाधर आदि दिव्य विभूतियों की विभिन्न कृतियों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो यह देखकर महान् आश्चर्य होता है कि किस प्रकार उन्होंने विभिन्न विषयों पर अपनी अधिकार पूर्ण लेखनी चलाकर अपनी अद्भुत विषय प्रवणता और ज्ञानगांभीर्य की व्यापकता का परिचय दिया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उन्हें सभी विषयों में प्रौढ़ प्रभुत्व प्राप्त था, उनका निरभिमानी पाण्डित्य सर्वदिगन्त व्यापी था और उनका ज्ञान-रवि अपनी प्रखर रश्मियों से सम्पूर्ण साहित्य जगत को आलोकित कर रहा था। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ रत्नों में जो ज्ञानराशि संचित है वह अब भी मानव समाज का उपकार कर रही है। जैन प्राच्य विद्याएं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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