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________________ जैनाचायों ने आयुर्वेद के जिन ग्रन्थों की रचना की है उनमें पूर्णत: जैन सिद्धान्तों का अनुकरण तथा धार्मिक नियमों का परिपालन किया गया है जो उनकी मौलिक विशेषता है। ग्रन्थ रचना में व्याकरण सम्बन्धी नियमों का पालन करते हुए रस, छन्द, अलंकार आदि काव्यांशों का यथा सम्भव प्रयोग किया गया है जिससे ग्रंथकर्ता के बहुमुखी बंध्य का आभास सहज ही हो जाता है। ग्रंथों में प्रौढ़ एवं प्राजंल भाषा का प्रयोग होने से ग्रन्थों की उत्कृष्टता निश्चय ही द्विगुणित हुई है। अतः यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि जिन विद्वद् श्रेष्ठ द्वारा उन ग्रन्थों की रचना की गई है वे न केवल सर्वशास्त्र पारंगत थे, अपितु आयुर्वेद में कृताभ्यासी और अनुभव से परिपूर्ण थे। अनेक ऐसे भी जैनाचार्य हुए हैं जिन्होंने स्वतंत्र रूप से तो किसी वैद्यक ग्रंथ का निर्माण नहीं किया, किन्तु अपने अन्य विषयक ग्रन्थों में यथा प्रसंग आयुर्वेद सम्बन्धी अन्यान्य विषयों का प्रतिपादन किया है। जैसे श्रीमत्सोमदेव सूरि ने यशस्तिलक चम्पू में अत्यन्त विस्तार पूर्वक प्रसंगोपात्त आयुर्वेदीय विभिन्न विषयों एवं सिद्धान्तों का समीचीन प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार अपने अन्य ग्रंथ नीतिवाक्यामृत में भी उन्होंने अनेक स्थलों पर आयुर्वेदीय विषयों को उद्धृत किया है। श्री पं० आशाधर जी ने स्वतन्त्र रूपेण किसी वैद्यक ग्रंथ का निर्माण नहीं किया, किन्तु आयुर्वेद के एक प्रमुख ग्रन्थ "अष्टांग हृदय" पर विद्वत्तापूर्ण टीका लिखकर अपनी विद्वत्ता एवं आयुर्वेद संबंधी अपने अगाध ज्ञान का परिचय दिया है । इसी प्रकार अन्य अनेक आचार्यों ने भी आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों पर अपनी ओजपूर्ण एवं विद्वत्ता पूर्ण टीकाएं लिखकर आयुर्वेद जगत् का महान् उपकार किया है। इस प्रकार आयुर्वेद के प्रति जैनाचार्यों के योगदान को तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है-एक स्वतंत्र ग्रन्थ रचना के रूप में, दूसरा अपने अन्य विषयों वाले ग्रंथों में प्रसंगोपात्त वर्णन के रूप में और तीसरा आयुर्वेद के ग्रन्थों की टीका के रूप में। यह जैनाचार्यों के गहन वैदृष्य का ही परिणाम है कि जैन सिद्धान्त, दर्शन और अध्यात्म जैसे विषयों पर ग्रन्थ रचना करने वाले मनीषियों ने आयुर्वेद जैसे लौकिक विषय पर भी व्यापक रूप से लिखा और जन कल्याण हेतु अपने आयुर्वेद संबंधी ज्ञान को प्रसारित किया । अतः यह एक निर्विवाद तथ्य है कि आयुर्वेद वाङमय के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गई सेवा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति । किन्तु दुःख इस बात का है कि जैनाचार्यों द्वारा जितने भी वैद्यक ग्रन्थों की रचना की गई है उसका शतांश भी अभी तक प्रकाश में नहीं आया है। इसका एक कारण तो यह है कि उनके द्वारा लिखित अनेक वैद्यक ग्रन्थ या तो लप्त हो गए हैं अथवा खण्डित रूप में होने से अपूर्ण हैं । काल कवलित हुए अनेक वैद्यक ग्रंथों का उल्लेख विभिन्न आचार्यों की वर्तमान में उपलब्ध अन्यान्य कृतियों में मिलता है। विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों तथा जैन मंदिरों में खोजने पर अनेक वैद्यक ग्रन्थों के प्राप्त होने की संभावना है। अत: विद्वानों द्वारा इस दिशा में अनुसंधान कार्य अपेक्षित है। प्रयत्न किए जाने पर इस दिशा में निश्चय ही सफलता प्राप्त हो सकती है। दुसरा कारण यह है कि समाज तथा समाज के सम्पन्न श्रेष्ठी वर्ग ने इस प्रकार के ग्रन्थों के प्रकाशन के प्रति उपेक्षा या उदासीनता का भाव रखा । आयुर्वेद के ग्रन्थों के प्रकाशन के प्रति उनमें कोई रुचि नहीं थी अत: यह कार्य उपेक्षित-सा रहा । समाज के सम्पन्न वर्ग एवं विभिन्न संस्थाओं ने यद्यपि अन्य ग्रंथों के संशोधन, सम्पादन, मुद्रण एवं प्रकाशन में अत्यधिक रुचि एवं उत्साह प्रदर्शित किया तथा आर्थिक व अन्य सभी प्रकार का सहयोग प्रदान किया, किन्तु आयुर्वेद के ग्रन्थों के प्रति कोई रुचि प्रदर्शित नहीं की गई । वर्तमान में जैन साहित्य की विभिन्न विधाओं में शोध कार्य के प्रति अत्यधिक उत्साह है। अनेक संस्थाएं इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। अतः विलुप्त वैद्यक ग्रंथों की भी खोज की जानी चाहिए और उनके प्रकाशन की व्यवस्था की जानी चाहिये। संभव है कि लुप्त वैद्यक ग्रंथों के प्रकाशन में आने से आयुर्वेद के उन महत्वपूर्ण तथ्यों एवं सिद्धान्तों का प्रकाशन हो सके जो आयुर्वेद के प्रचुर ग्रंथों के काल कवलित हो जाने से विलुप्त हो गए हैं । जैनाचार्यों द्वारा लिखित वैद्य क ग्रंथों के प्रकाशन से आयुर्वेद के विलुप्त साहित्य और इतिहास पर भी प्रकाश पड़ने की सम्भावना है । आशा है समाज, विद्वद वर्ग और शोधकर्ता गण इस दिशा में भी प्रयत्नशील रहेंगे, ताकि असूर्यम्पश्य इस विषय पर अधिकाधिक सामग्री संकलित की जा सके और उसे समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया जा सके। विभिन्न शोध संस्थानों एवं अध्ययन-अनुसंधान केन्द्रों तथा सरस्वती भवनों से इस दिशा में अपेक्षित सहयोग एवं दिशा निर्देश प्राप्त किया जा सकता है ताकि जैन वाङमय के अंगभूत आयुर्वेद विषयक ग्रन्थों को प्रकाश में लाया जा सके और जैनाचार्यों के योगदान का समुचित मूल्यांकन किया जा सके। जैनाचार्यों द्वारा लिखित आयुर्वेद के ऐसे ग्रंथों की संख्या अत्यल्प है जिसका प्रकाशन किया गया है। अब तक जो ग्रंथ प्रकाशित किए गए हैं उनमें श्री उग्रादित्याचार्य द्वारा प्रणीत "कल्याणकारक" और श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा कथित औषध योगों का संकलन "वैद्यसार" ये दो ग्रंथ महत्वपूर्ण हैं। इनमें से प्रथम कल्याणकारक का हिन्दी अनुवाद एवं सम्पादन श्री पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सोलापुर द्वारा किया गया है और प्रकाशन श्री सेठ गोविन्दजी राव जी दोशी, सोलापुर द्वारा १ फरवरी १९४० को किया गया। द्वितीय वैद्यसार नामक ग्रंथ जैन सिद्धान्त भवन द्वारा प्रकाशित किया गया। इसका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद आयुर्वेदाचार्य पं. सत्यन्धर कुमार जैन, काव्यतीर्थ द्वारा किया गया है । इस ग्रंथ में चिकित्सा सम्बन्धी जो विभिन्न औषध योग वर्णित हैं उनमें से अधिकांश में पूज्यपाद: कथितं, पूज्यपादोदितं आदि माचार्यरल भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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