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________________ पर आरूढ़ करता है। जैन धर्म में भी आत्म कल्याण हेतु प्रवृत्ति का निर्देश दिया गया है। अतः लक्ष्य साधन में समानता की स्थिति एक महत्त्वर्ण तथ्य है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति के लोकोपकारी स्वरूप निर्माण में अन्य विद्याओं और कलाओं का जो योगदान रहा है वही योगदान आयुर्वेद शास्त्र का भी समझना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र में कुछ विशेषताएँ तो ऐसी हैं जो अन्य शास्त्रों में बिल्कुल भी नहीं हैं। मनुष्य के दैनिक जीवन में आचरित अनेक बातें ऐसी हैं जिसके नियम और उपयोगी सिद्धान्त आयुर्वेद शास्त्र में वणित हैं। गर्भधारण से लेकर मरणपर्यन्त की विभिन्न स्थितियों का उल्लेख एवं वर्णन आयुर्वेद शास्त्र में मिलता है। इसीलिए इसे जीवन विज्ञान कहा जाता है। मानव जीवन के साथ निकटता एवं तादात्म्य भाव इस शास्त्र की मौलिक विशेषता है। जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में यह उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद की परिधि में आने वाली ऐसी अनेक वातें हैं जो जैनधर्म की दृष्टि से उपयोगी हैं। इसी प्रकार जैन धर्म की अनेक ऐसी बातें हैं जो आयुर्वेद की दृष्टि से भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी धार्मिक दृष्टि से हैं। इस संदर्भ में "उपवास" को ही लिया जाय । आत्म कल्याण की दृष्टि से जैन धर्म में इस प्रक्रिया को अति महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि उपवास के द्वारा जहां अहारगत संयम का पालन होता है वहां अन्तःकरण में विकार भावों का विनाश होकर शुद्धता आती है , जिसका प्रभाव मानसिक भावों एवं परिणामों पर पड़ता है। उधर आय वद शास्त्र में भी उपवास की अतिशय महत्ता स्वीकार की गई है। इसका कारण यह है कि उपवास के द्वारा जिह्वा की लम्पटता, रसों की लोलुपता तथा अति भक्षण आदि अहितकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगता है और उदर शुद्धि के साथ-साथ उदरगत क्रियायों को विश्राम मिलता है, जिससे वे अपनी प्राकृत स्थिति बनाए रखती है। आयुर्वेद शास्त्र में अनेक रोगों का मूल उदर विकार माना गया है जो आहार की अनियमितता और आहार सम्बन्धी नियमों के उल्लंघन से होता है। उपवास के द्वारा दूषित, मलिन, विकृत, अहित, परस्पर विरुद्ध तथा अशुद्ध आहार से तो शरीर की रक्षा होती ही है, उदर में संचित दोषों और विकारों का शमन भी होता है। उपवास के द्वारा शारीरिक आरोग्य सम्पादन के साथ-साथ आत्मा को बल और अन्तःकरण को पवित्रता प्राप्त होती है। उपवास को आयुर्वेद में "लंघन" कहा जाता है । अनेक रोगों के शमनार्थ लंघन की उपयोगिता सुविदित है। ज्वर में सर्वप्रथम लंघन का निर्देश दिया गया है । अजीणं, अतिसार, आमातिसार, आमवात तथा श्लेष्माजनित विभिन्न विकारों में लंघन का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। विभिन्न रोगों में लंघन का निर्देश यद्यपि स्पष्टत: विकारोपशमन के लिये किया गया है और उपहास के साथ उसका कोई तादात्म्य भाव नहीं है, तथापि दोनों की प्रकृति एक समान होने से दोनों में निकटता तो है ही इसके अतिरिक्त लंघन के द्वारा जब विकाराभिनिवृति होती है तो उस प्रकृति-स्थापन एवं शुद्धिकरण की प्रक्रिया का पर्याप्त प्रभाव मानसिक स्थिति पर पड़ता है और मन में विकारों के प्राबल्य में निश्चित रूप से कमी होती है । उपवास का प्रयोजन भी अन्तःकरण की शुद्धि करना है। लंघन के पीछे यद्यपि धार्मिक प्रवृति या आध्यात्मिक भाव नहीं होता, तथापि विवेक एवं नियमानुसार उसका भी आचरण किया जाय तो विकारोपशमन के साथ-साथ उपवास का फल भी अजित किया जा सकता है। उपवास के द्वारा तो निश्चय ही आध्यात्मिक पुण्य फल की उपलब्धि के साथ-साथ शारीरिक व मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त एक तथ्य यह भी है कि लंघन के द्वारा जो आरोग्य लाभ होता है वह व्यवहारज स्वास्थ्य कहलाता है। यह व्यवहारज स्वास्थ्य पारमार्थिक स्वास्थ्य की लब्धि में सहायक साधन है, अत: आध्यात्मिक निःश्रेयस् की दृष्टि से लंघन भी एक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण साधन है। __ आध्यात्मिक अभ्युन्नति, आत्मकल्याण यथा अन्तःकरण की शुद्धि की दृष्टि से जैन धर्म में दस लक्षण धर्मों का विशेष महत्त्व है। उन दस लक्षण धर्मों में 'त्याग धर्म' को अन्तःकरण की शुद्धि तथा आत्म कल्याण हेतु विशेष उपयोगी एवं महत्वपूर्ण निरूपित किया गया है। उत्तम त्याग धर्म के अन्तर्गत गृहस्थ जनों के लिए चार प्रकार का दान बतलाया है, जिसमें एक औषध दान भी है। जैनधर्म में अन्य दानों की भाँति "औषध दान" की महिमा भी बतलाई गई है । औषध दान के द्वारा दानकर्ता को पुण्य का संचय तो होता ही है, औषध दान का लाभ लेने वाला व्यक्ति आरोग्य लाभ करता है । औषध का समावेश चिकित्सा के अन्तर्गत है और चिकित्सा का सर्वांगपूर्ण विवेचन आयुर्वेद शास्त्र में विहित है । यही कारण है कि जैन समाज द्वारा स्थान-स्थान पर जैन धर्मार्थ दातव्य औषधालय खोले गए हैं जो केवल समाज के दान से ही चलते हैं और प्रतिदिन असंख्य आर्तजन उनसे लाभ उठाते हैं। यह परम्परा समाज में कई दिनों से चली आ रही है । अतः यह निसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि जैनधर्म का आयुर्वेद से निकट सम्बन्ध है। जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के शरीर में रोगोद्भव अशुभकर्म के उदय से होता है। मनुष्य द्वारा पूर्वजन्म में किए गए पाप कर्म का उदय जब इस जन्म में होता है तो अन्यान्य कष्टों अथवा रोगोत्पत्ति रूप कष्ट भी उसे होता है। उसका निवारण तब तक संभव नहीं है जब तक उस अशुभ कर्म का परिपाक होकर उसका क्षय नहीं हो जाता । धर्माचरण से पाप का शमन होता है, अत: पापकर्मजनित रोग का शमन धर्म सेवन मे ही संभव है। यही भाव जैन धर्म में निम्न प्रकार से प्रतिपादित है : १७४ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन गन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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