________________
यह वैद्य शास्त्र लोकोपकार के लिए प्रतिपादित किया गया है। इसका प्रयोजन द्विविध है
1-स्वस्थ पुरुषों के स्वास्थ्य की रक्षा करना, और 2-रोगी मनुष्यों के रोग का प्रशमन करना । श्री उग्रादित्याचार्य ने वैद्य शास्त्र के ये ही दो प्रयोजन बतलाए हैं। यथा
लोकोपकरणार्थमिदं हि शास्त्रं शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधि यथावत् । स्वास्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च
संक्षेपतः सकलमेव निरुप्यतेऽत्र ॥ -कल्याणकारक, अ०१/२४ इस शास्त्र में भगवान जिनेन्द्र देव के अनुसार दो प्रकार का स्वास्थ्य बतलाया गया है-पारमार्थिक स्वास्थ्य और व्यवहार स्वास्थ्य । इन दोनों में पारमार्थिक स्वास्थ्य मुख्य है। परमार्थ स्वास्थ्य का निम्न लक्षण बतलाया गया है
अशेषकर्मक्षयजं महाद्भुतं यदेतदात्यन्तिकद्वितीयम् ।
अतीन्द्रयं प्रार्थितमर्थवेदिभिः तदेतदुक्तं परमार्थनामकम् ॥ -कल्याणकारक, अ० २/३ अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कमों का क्षय होने से उत्पन्न, अत्यन्त अद्भुत, आत्यन्तिक एवं अद्वितीय विद्वानों द्वारा अपेक्षित जो अतीन्द्रिय मोक्षसुख है उसे ही पारमार्थिक सुख कहते हैं। व्यवहार स्वास्थ्य का लक्षण निम्न प्रकार बतलाया गया है
समाग्निधातु त्वमदोषविभ्रमो मलक्रियात्मेन्द्रियसुप्रसन्नता ।
मन: प्रसादश्च नरस्य सर्वदा तदेवमुक्तं व्यवहारजं खलु ॥ -कल्याणकारक, अ० २/४ अर्थात् मनुष्य के शरीर में सम अग्नि (अविकृत जठराग्नि) होना, धातुओं का सम होना, वात-पित्त-कफ तीनों दोषों का विषम (विकृत) नहीं होना, मलों (स्वेद, मूत्र-पुरीष) की विसर्जन क्रिया यथोचित रूप से होना, आत्मा, इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता सदैव रहना यह व्यवहारिक स्वास्थ्य का लक्षण है।
इस प्रकार द्विविध स्वास्थ्य का लक्षण कहने का आशय यह है कि पहले मनुष्य सम्यक् आहार-विहार द्वारा व्यावहारिक स्वास्थ्य याने शारीरिक स्वास्थ्य का लाभ और उसका अनुरक्षण करे। तत्पश्चात् स्वस्थ शरीर द्वारा अशेष कर्म क्षयकारक तपश्चरण आदि क्रियाओं से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके अक्षय, अविनाशी सुख रूप पारमार्थिक स्वास्थ्य का लाभ लेवे । इसे ही अन्य शास्त्रों में आध्यात्मिक सुख भी कहा गया है। मनुष्य जब उस परम सुख को प्राप्त कर लेता है तो उसके लिए और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। उसे चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है और उसका जीवन सफल एवं सार्थक हो जाता है। यही इस आयुर्वेद शास्त्र का मूल प्रयोजन है और इसी प्रयोजन के लिए वह प्रवर्तित है।
इससे स्पष्ट है कि जैन धर्म में लोकोपकार और आत्म-कल्याण को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। क्योंकि परोपकार के कारण मनुष्य एक ओर तो दूसरों का हित करता ही है, दूसरी ओर पुण्य संचय के कारण अपना भी हित करता है। आयुर्वेद शास्त्र चूंकि परोपकारी शास्त्र है, अतः जैन धर्म के अन्तर्गत वह उपादेय है। यही कारण है कि धर्म-दर्शन आचार-नीति-ज्योतिष आदि अन्यान्य विद्याओं की भांति वैद्यक विद्या भी जैन धर्म के अन्तर्गत प्रतिपादित है । सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र देव द्वारा जिस प्रकार अन्य विद्याओं का कथन किया गया है उसी प्रकार आयुर्वेद विद्या का कथन भी सांगोपांग रूप में विस्तार पूर्वक किया गया है। अपने लोकोपकारी स्वरूप के कारण आयुर्वेद शास्त्र की व्यापकता इतनी अधिक रही है कि वह शाश्वत रूप से विद्यमान है। सर्वज्ञ वीतराग की वाणी द्वारा मुखरित होने के कारण अनेक प्रभावी जैनाचार्यों ने इसे अपनाया और गहन रूप से उसके गढ़तम तत्त्वों का अध्ययन किया । जैनधर्म के ऐसे अनेक आचार्यों की एक लम्बी परम्परा प्राप्त होती है जिन्होंने अपने प्रखर पाण्डित्य के अधीन आयुर्वेद शास्त्र को भी समाविष्ट किया। इसका एक प्रमाण तो यही है कि आचार्यों ने सर्वज्ञ वाणी का मंथन कर आयुर्वेदामृत को निकाला, उसे उन्होंने अपनी महिमामयी लेखनी द्वारा लिपिबद्ध कर जगत् हितार्थ प्रसारित किया। उन आचार्यों द्वारा लिखित आयुर्वेद विषयक ऐसी अनेक कृतियों का उल्लेख अन्यान्य ग्रंथों में मिलता है। इससे इस तथ्य की तो पुष्टि होती है कि जैन धर्म में अन्य विद्याओं की भाँति आयुर्वेद का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
यहाँ इस तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि धर्म और दर्शन शास्त्र ने जिस प्रकार जैन संस्कृति के स्वरूप को अक्षुण्ण बनाया है, आचार शास्त्र और नीति शास्त्र ने जिस प्रकार जैन संस्कृति की उपयोगिता को उद्भाषित किया है उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र ने भी स्वास्थ्य प्रतिपादक सिद्धान्तों एवं संयम पूर्वक आहार चर्या आदि के द्वारा जैन धर्म और संस्कृति को व्यापक तथा लोकोपयोगी बनाने में अपना अपूर्व योगदान किया है। सद्वत्त का आचरण तथा आहारगत संयम का परिपालन मनुष्य को आत्म कल्याण के सोपान
बैन प्राच्य विद्याएं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org