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________________ चला आया है। याने आद्य तीर्थकर भगवान ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर पर्यन्त सभी तीर्थकरों के मुखारबिन्द से निःसृत दिव्य ध्वनि द्वारा इसका प्रतिपादन किया गया है । अतः अन्य तीर्थंकरों द्वारा कथित सिद्ध मार्ग से आग हुआ यह आयुर्वेद शास्त्र अत्यन्त विस्तृत, दोषरहित एवं अर्थगाम्भीर्य से युक्त है। तीर्थंकरों के मुखकमल से स्वतः समुद्भूत होने से स्वयम्भु हैं और बीजांकुर न्याय से (पूर्वोक्त क्रम से) अनादि काल से सतत चले जाने के कारण सनातन है। ऐसा यह आयुर्वेद शास्त्र गोवर्धन, भद्रबाहु आदि श्रुतकेलियों के मुख से अल्पांग ज्ञानी या आगम ज्ञानी मुनिवरों द्वारा साक्षात् रूप से सुना हुआ (सुनकर ग्रहण किया हुआ) है। तात्पर्य यह है कि श्रुतकेवलियों ने अन्य मुनियों को इस शास्त्र का उपदेश दिया। अल्पांगज्ञानी या अंगांगज्ञानी उन मुनिवरों ने अपने शिष्यों, अन्य मुनियों को इस शास्त्र का उपदेश दिया और उन्होंने उस ज्ञान के आधार पर पृथक्-पृथक् रूप से ग्रंथों के रूप में उसे निबद्ध कर लोकहित की दृष्टि से उसे प्रचारित किया। इस प्रकार आयुर्वेद सम्बन्धी अनेक ग्रंथों का प्रणयन कालान्तर में करुणाधारी मुनिजनों द्वारा किया गया। कालक्रम, आलस्य और उपेक्षा के कारण आज अनेक ग्रंथ कालकवलित या विलुप्त हो चुके हैं । जो बचे हैं उनके संरक्षण की ओर समुचित स्थान नहीं दिया जा रहा है और न ही इसके लिए कोई उपाय किए जा रहे हैं। अतः शनैः शनैः शेष बचे हुए ग्रन्थों के भी विलुप्त होने की संभावना है। आयुर्वेद शास्त्र का मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने वाले और उसमें निष्णात व्यक्ति को “वैद्य" कहा जाता है-ऐसा कथन तज्ज्ञ मनिजनों ने किया है। वैद्यों का शास्त्र होने से इसे 'वैद्य शास्त्र' या 'वंद्यक शास्त्र' भी कहते हैं । श्री उग्रादित्याचार्य ने वैद्य एवं आयर्वेद शब्द को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है विद्य ति सत्प्रकटकेवललोचनाख्या तस्यां यदेतदुपपन्नमुदारशास्त्रम् । वैद्यं वदन्ति पदशास्त्रविशेष्णज्ञा एतद्विचिन्त्य च पठन्ति च तेऽपि वैद्याः ।। वेदोऽमित्यपि च बोधविचारलाभात्तत्वार्थसूचकवचः खलु धातुभेदात् । आयुश्च तेन सहपूर्व निबद्धमुद्यच्छास्त्राभिधानमपरं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥-कल्याण कारक, अ०१/१८-१९ ___ अर्थात अच्छी तरह से उत्पन्न केवल ज्ञान रूपी चक्षु को विद्या कहते हैं । इस विद्या से उत्पन्न उदारशास्त्र को व्याकरण शास्त्र के विशेषज्ञ 'वद्यशास्त्र' कहते हैं। उस उदार शास्त्र को जो लोग अच्छी तरह मनन पूर्वक पढ़ते हैं वे 'वंद्य' कहलाते हैं । यह आयुर्वेद भी कहलाता है। इसमें "वेद" शब्द विद्धातु से निष्पन्न है। विद् धातु बोध (ज्ञान), विचार और लाभ अर्थ वाली है। यहाँ वेद शब्द का अर्थ वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बतलाने वाला है। याने तत्त्व के अर्थ को प्रतिपादित करने वाले वचन । इस वेद शब्द के पहले "आयु" शब्द जोड़ दिया जाय तो "आयव द" शब्द निष्पन्न होता है। अतः उस वैद्यकशास्त्र के ज्ञाता उस शास्त्र का अपर (दूसरा) नाम आयुर्वेद शास्त्र कहते हैं। आयुर्वेद के विशिष्टार्थ एवं विस्तृत व्याख्या के संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि जिस शास्त्र में आय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया हो, जिस शास्त्र का अध्ययन करने से आयु सम्बन्धी विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है अथवा जिस शास्त्र के विषय में विचार करने से हितकर आयु, अहितकर आयु, सुखकर आयु और दुःखकर आयु के विषय में जानकारी प्राप्त होती है अथवा जिस शास्त्र में बतलाए हुए नियमों का पालन करने से दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है उसका नाम आयुर्वेद है। इसी प्रकार स्वस्थ आर अस्वस्थ मनुष्य की प्रकृति, शुभ और अशुभ बतलाने वाले दूत एवं अरिष्ट लक्षण इत्यादि के उपदेशों से जो शास्त्र आयु का विषय अर्थात् यह स्वल्पाय है अथवा मध्यमायु है या दीर्घायु है-इन सब विषयों का ज्ञान करा देता है वह आयुर्वेद है। यहाँ यह स्मरणीय है कि आयु शब्द का अर्थ 'वय' नहीं करना चाहिये। आयु और वय में पर्याप्त भिन्नता है। आयु शब्द यावज्जीवन काल का द्योतक है, जबकि वय शब्द जीवन की एक निश्चित कालावधि का द्योतक है। अत: आयु शब्द का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हए आयुर्वेद के संदर्भ में उसकी जो विवेचना मनीषियों द्वारा की गई है वह सार्थक है। तदनुसार आयु के लिए कौन-सी वस्तु लाभदायक है अथवा किस वस्तु या विषय के सेवन से आयु की हानि हो सकती है ? किस प्रकार की आयु हितकर है और किस प्रकार की आयु अहितकर है ? यह सम्पूर्ण विषय जिस शास्त्र में वर्णित होता है तथा आयु को बाधित करने वाले रोगों का निदान और उनका प्रतिकार करने के उपायों (चिकित्सा) का वर्णन जिस शास्त्र में किया गया है उसे विद्वानों ने आयुर्वेद संज्ञा से अभिहित किया है। इस शास्त्र के द्वारा पुरुष चूंकि आयु को प्राप्त करता है तथा आयु के विषय में जान लेता है, अतः मुनिश्रेष्ठों द्वारा इसे “आयुवद" कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यदि समुचित ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है तो मनुष्य को दीर्घायु प्राप्त करने और अपनी आयु का संरक्षण करने का उपाय सहज ही ज्ञात हो जाता है । क्योंकि इस शास्त्र में प्रतिपादित आहार-विहार सम्बन्धी नियमों और अन्य सदाचारों का पालन करने से दीर्घायु की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए मुनिवरों, ऋषियों और आचार्यों ने इसे आयुर्वेद के नाम से कहा। १७२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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