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अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करने वाली सर्वार्धमागधी भाषा में जो प्राणावाय नामक महागम (महाशास्त्र) है उससे यथावत संक्षेप रूप से संग्रह कर उग्रादित्य गुरु ने उत्तम गुणों से युक्त सुख के स्थान भूत इस शास्त्र की रचना संस्कृत भाषा में की। इन दोनों (प्राणावाय अंग और कल्याणकारक) में यही अन्तर है । याने प्राणावाय अंग अर्धमागधी भाषा में निबद्ध है और कल्याणकारक संस्कृत भाषा में रचित है । दोनों में बस यही अन्तर है।
जैन मतानुसार आयुर्वेद रूप सम्पूर्ण प्राणावाय के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव हैं। इसके विपरीत वैदिक मतानुसार आयुर्वेद शास्त्र के आद्य प्रवर्तक या आशु पदेष्टा ब्रह्मा हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना से पूर्व ही उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र की अभिव्यक्ति की जिस प्रकार बालक के जन्म से पूर्व ही माता के स्तनों में स्तन्य (क्षीर) का आविर्भाव हो जाता है। किन्तु जैन मतानुसार यह सृष्टि अनादि और अनन्त है। अत: इसकी रचना का प्रश्न ही नहीं उठता। प्रथम और द्वितीय काल में यहां भोग भूमि की उत्कृष्ट दशा थी जिसमें सभी मनुष्यों में पारस्परिक सौहार्दभाव था। ईर्ष्या और द्वेष भाव से पूर्णतः रहित वे एक दूसरे को अत्यन्त स्नेह की दृष्टि से देखते थे। उनकी सभी अभिलाषाएं कल्पवृक्षों से पूर्ण होती थीं, वे कल्पवृक्ष सभी प्रकार के मनोवांछित सुख के प्रदाता थे। अभिलषित सुख का उपभोग करने वाले भोग भूमि में उत्पन्न वे पुण्यात्मा मनुष्य यावज्जीवन उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सुखोपभोग कर अपने आयुकर्म के क्षय के अनन्तर ही स्वर्ग को प्राप्त होते थे। इस प्रकार भोग भूमि में मनुष्यों को किसी भी प्रकार का कोई दुःख नहीं था और न ही वे किसी व्याधि से पीड़ित होते थे।
भोग भूमि के पश्चात् इस क्षेत्र में कमभूमि का प्रारंभ हुआ। फिर भी उपपाद शय्या में उत्पन्न होने वाले देवगण, चरम व उत्तम शरीर को प्राप्त करने वाले पुण्यात्मा अपने पुण्य प्रभाव से विष-शस्त्रादि के द्वारा होने वाले अपघात से सुरक्षित दीर्घायु शरीर को ही प्राप्त करते थे। किन्तु उस समय शनैः शनैः कालक्रम से ऐसे मनुष्य भी उत्पन्न होने लगे जो विष-शस्त्रादि द्वारा घात होने योग्य शरीर को धारण करने वाले होते थे। उन्हें वात-पित्त-कफ के उद्रेक से महाभय उत्पन्न होने लगा। ऐसी स्थिति में भरत चक्रवर्ती आदि भव्य जन भगवान ऋषभदेव के उस समवसरण में पहुँचे जा अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, छत्र, चामर, रत्नजड़ित सिंहासन, भामण्डल और देव दुन्दुभि अष्ट महाप्रातिहार्य तथा बारह प्रकार की सभाओं से वेष्टित था । वहाँ पहुँचकर उन्होंने प्रभु से निम्न प्रकार निवेदन किया।
देव ! त्वमेव शरणं शरणागतानामस्माकमाकुलधियामिह कर्मभूमौ । शीतातितापहिमवृष्टिनिपीडितानां कालक्रमात्कदशनाशनतत्पराणाम् ।। नानाविधामयभयादतिदुःखितानामाहारभैषजनिरुक्तिमजानतां
तत्स्वास्थ्यरक्षणविधानमिहातुराणां का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ ।। -कल्याणकारक,अ० १/६-2 अर्थात् हे देव ! इस कर्मभूमि में अत्यधिक ठंड, गर्मी और वर्षा से पीड़ित इस कालक्रम से मिथ्या आहार-विहार के सेवन में तत्पर व्याकुल बुद्धिवाले शरणागत हम लोगों के लिए आप ही शरण हैं। हे तीन लोक के स्वामिन् ! अनेक प्रकार की व्याधियों के भय से अत्यन्त दुःखी तथा आहार औषधि के क्रम को नहीं जानने वाले हम व्याधितों (पीड़ितों) के लिए स्वास्थ्य रक्षा के उपाय और रोगों का नाश करने वाली क्रिया (चिकित्सा) बतलाने की कृपा करें।
___ इस प्रकार भगवान से निवेदन करने के पश्चात् वृषभसेन आदि प्रमुख गणधर और भरत चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुष अपनेअपने स्थान पर मौन होकर वस्थित हो गए। तब उस महान् सभा रूप समवसरण में भगवान की उत्कृष्ट देवी (साक्षात पट्टरानी) रूप सरस वाग्देवी दिव्य ध्वनि से युक्त प्रसरित हुई । उस दिव्य ध्वनि रूप सरस्वती ने सर्वप्रथम पुरुष लक्षण, रोग लक्षण, औषधियां एवं सम्पूर्ण काल रूप सकल वस्तु-चतुष्टय का संक्षेपत: वर्णन किया जो सर्वज्ञत्व का सूचक है।
इस प्रकार आयुर्वेद शास्त्र का आविर्भाव आद्यतीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के मुखारविन्द से निःसृत दिव्य ध्वनि के द्वारा हुआ। इससे स्पष्ट है कि आयुर्वेद शास्त्र के आधुपदेष्टा भगवान ऋषभदेव हैं। उनसे उपदिष्ट आयुर्वेद की परम्परा किस प्रकार से प्रसार को प्राप्त हुई, इसका विवेचन श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याणकारक में निम्न प्रकार से किया है
दिव्यध्वनिप्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तथा गणधरोऽधिजगे समस्तम् । पश्चात् गणाधिपनिरूपितवाक्प्र पचमष्टार्धनिमलधियो मुनयोऽधिजग्मुः ।। एवं जितान्तरनिबन्धनसिद्धमार्गादायातमायतमनाकुलमर्थनाढम् ।
स्वायम्भुवं सकलमेव सनातनं तत्साक्षाच्छ तं श्रुतकेवलिभ्यः ।। -कल्याण कारक, अ०१/९-१० अर्थात् इस प्रकार भगवान की दिव्य ध्वनि द्वारा प्रकट हुआ परमार्थ रूप से उत्पन्न सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र को गणधर परमेष्ठी ने साक्षात् रूप से जान लिया। तत्पश्चात गणधर प्रमुख द्वारा निरूपित उम वस्तु स्वरूप को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान को धारण करने वाले निर्मल बुद्धि वाले मुनियों ने जाना । इस प्रकार यह आयर्वेद शास्त्र अन्य तीर्थकर द्वारा भी प्रतिपादित होने से
जन प्राच्य विद्याएँ
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