SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1036
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मौलिक विशेषता है कि इसमें मनुष्य की शारीरिक स्थिति के साथ-साथ उसको मानसिक एवं आध्यात्मिक स्थिति के विषय में भी पर्याप्त गम्भीर विचार किया गया है। शरीर के साथ-साथ प्राण तत्व का विवेचन, आत्मा और मन के विषय में स्वतंत्र दृष्टिकोण तथा शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास क्रम का यथोचित वर्णन आयुर्वेद की वैज्ञानिकता एवं प्रामाणिकता के सबल प्रमाण हैं। उसकी वैद्यक विद्या अपनी पृथक् पद्धति एवं चिकित्सा सम्बन्धी व्यापकता के कारण विशिष्ट महत्वपूर्ण है। पोषण सम्बन्धी तत्वों एवं रासायनिक पदार्थों का उसमें विशिष्ट रूप से विभक्तीकरण किया गया है जो पूर्णतः मात्रा और गुण पर आधारित है। विशिष्ट विधिपूर्वक निर्मित रस रसायन-पिष्टी भस्मबटीले तपाक-पाक-अवलेह मोदक आदि कल्पनाएं और समस्त वनौषधियों के प्रयोग ने इस विज्ञान को निश्चय ही मौलिक स्वरूप प्रदान किया है। अपनी सरलता और रोगमुक्त करने की क्षमता के कारण आयुर्वेद की अनेक प्रक्रियाओं ने ग्रामीण जन जीवन में इतनी आसानी से प्रवेश पा लिया है कि आज भी गांव में किसी के व्याधित या रोग पीड़ित हो जाने पर विभिन्न काढ़ों, (क्वाथ), लेपों आदि के द्वारा ग्रामीण जन उपचार करते देखे जाते हैं। इसका मूल कारण यही है कि आयुर्वेद मानव जीवन के अत्यधिक सन्निकट है । आयुर्वेद द्वारा प्रतिपादित रोग निदान और चिकित्सा सम्बन्धी सिद्धान्तों में रोगी के अन्तरिम प्राण बल के अन्वेषण पर ही बल दिया गया है। रोग के मूल कारण को मिथ्या आहार-विहार जनित बतला कर जिस प्रकार संयम द्वारा आहारगत पथ्य के नियम बनाए गए हैं वे अत्यन्त उत्कृष्ट एवं व्यावहारिक हैं। जो लोग एलोपैथी होम्योपैथो प्राकृतिक चिकित्सा आदि में विश्वास रखते हैं वे भी आज आहार के महत्व को समझने लगे हैं और रोग निवारण के लिए रोगी के चिकित्सा क्रम में संयम द्वारा विनिर्मित आहारगत पथ्य क्रम को महत्व देने लगे हैं । आयुर्वेद सार को जिस प्रकार वैदिक विचारधारा और वैदिक तत्वों ने प्रभावित किया है उसी प्रकार जैनधर्म और जेन विचारधारा ने भी उसे पर्याप्त रूप से प्रभावित कर अपने अनेक सिद्धान्तों से अनुप्राणित किया है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय में भी आयुर्वेद शास्त्र का स्वतंत्र स्थान है। अन्य विषयों या अन्य शास्त्रों की भांति वैद्यक शास्त्र की प्रामाणिकता भी जैन वाङमय में प्रतिपादित है। जैनागम में आयुर्वेद को भी आगम के अंग रुप में स्वीकार किया गया है। जैनागम में केवल उसी शास्त्र या विषय की प्रामाणिकता प्रतिपादित है जो सर्वज्ञ द्वारा कथित हो । सर्वज्ञ कथन के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय को कोई भी स्थान या महत्व नहीं है । सर्वज्ञ तीर्थंकर के मुख से जो दिव्य ध्वनि खिरती है उसे श्रुतज्ञान के धारक गणधर अविकल रूप से ग्रहण करते हैं। गणधर द्वारा गृहीत ध्वनि (जो ज्ञान रूप होती है) उनके द्वारा आचारांग आदि बारह भेदों में विभक्त की गई। गणधर द्वारा निरूपित बारह भेदों को द्वादशांग की संज्ञा दी गई है। इन द्वादशांगों में प्रथम आचरांग है और बारहवां "दृष्टिवाद" नाम का अंग है उस बारहवें दृष्टिवादांग के पांच भेद है— परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग पूर्वगत और चूलिका इनमें जो पूर्व' या 'पूर्वगत' नामक भेद है उसके चौदह भेद हैं। 1 उन चौदह भेदों में एक 'प्राणावाय' या 'प्राणावाद' नामक भेद है। इसी प्राणावाय नामक अंग में अष्टांग आयुर्वेद का कथन अत्यन्त विस्तारपूर्वक किया गया है । जैन मतानुसार आयुर्वेद या वैद्यक शास्त्र का मूल द्वादशांग के अन्तर्गत यही 'प्राणावाय' नामक भेद है। इसी के अनुसार अथवा इसी के आधार पर जैनाचार्यों ने लोकोपयोगी वैद्यक शास्त्र की रचना की या आयुर्वेद प्रधान ग्रंथों का निर्माण किया। जैनाचार्यों ने 'प्राणावाय' की विवेचना इस प्रकार की है - "काय चिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेद भूतकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावायम् i" अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के कर्म विषैले जीवजन्तुओं के विष का प्रभाव और उसकी चिकित्सा तथा प्राण अपान वायु का विभाग विस्तारपूर्वक वर्णित हो वह 'प्राणावाय' होता है। " द्वादशांग के अन्तर्गत निरूपित प्राणावाय पूर्व नामक अंग मूलतः अर्धमागधी भाषा में लिपिबद्ध है। इस प्राणावाय पूर्व के आधार पर ही अन्यान्य जैनाचार्यों ने विभिन्न वैद्यक ग्रंथों का प्रणयन किया है। श्री उग्रादित्याचार्य ने भी प्राणावाय पूर्व के आधार पर 'कल्याण कारक' नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। इसका उल्लेख आचार्य श्री ने स्थान-स्थान पर किया है । ग्रन्थ के अन्त में वे लिखते हैं १७० Jain Education International सर्वार्धाधिक मागधीयविलसद् भाषापरिशेषोज्वलात् प्राणवाय महागमादवित थं संगुह्य संक्षेपत: । सौख्यास्पदं उग्रादित्यगुरु गुरुगुणैरुद्भासि शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः || - कल्याणकारक, अ० २५, श्लो० ५४ आचार्यरत्न भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy