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________________ आयुर्वेद के विषय में जैन दृष्टिकोण और जैनाचार्यों का योगदान आचार्य राजकुमार जैन आयुर्वेद एक शाश्वत जीवन विज्ञान है। जीवन के प्रत्येक क्षण की प्रत्येक स्थिति आयुर्वेदीय सिद्धान्तों में सन्निहित है। आयुर्वेद मानव जीवन से पृथक् कोई भिन्न वस्तु या विषय नहीं है। अपितु दोनों में अत्यधिक निकटता और कहीं-कहीं तो तादात्म्य भाव है । सामान्यतः मनुष्य के जीवन की आद्यन्त प्रतिक्षण चलने वाली श्रृंखला ही आयु है, वह आयु जीवन है, उस आयु (जीवन) का वेद (ज्ञान) ही आयुर्वेद है, अतः आयुर्वेद एक सम्पूर्ण जीवन विज्ञान है। यह आयुर्वेद अनादि काल से इस भूमंडल पर प्रवर्तमान है। जब से सृष्टि का आरम्भ और मानव जाति का विकास इस भूमंडल पर हुआ है तब ही से उसके जीवन में अनुरक्षण और स्वास्थ्य-रक्षा हेतु नियमों का उपदेश एवं रोगोपचार हेतु विविध उपायों का निर्देश करने के लिये यह आयुर्वेद शास्त्र सतत प्रवर्तित रहा है। इसकी नवीन उत्पत्ति नहीं होती है, अपितु अभिव्यक्ति होती है, अतः यह अनादि है। इसका विनाश नहीं होता है, अपितु कुछ काल के लिए तिरोभाव होता है. अतः यह अनन्त है। अनाद्यनन्त होने से यह शाश्वत है । आयुर्वेद में प्रतिपादित सिद्धान्त इतने सामान्य, व्यापक, जनजीवनोपयोगी एवं सर्वसाधारण के लिए हितकारी हैं कि सरलता पूर्वक उन्हें अमल में लाकर यथाशीघ्र आरोग्य लाभ किया जा सकता है। आयुर्वेद शास्त्र केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही उपयोगी नहीं है अपितु मानसिक एवं बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए भी हितावह है। इसमें प्रतिपादित सिद्धान्त चिकित्सा के अतिरिक्त ऐसे नियमों का प्रतिपादन करते हैं जो मनुष्य के आध्यात्मिक आचरण, मानसिक प्रवृत्ति और बौद्धिक जगत के क्रियाकलापों को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित करते हैं। अतः यह केवल चिकित्सा शास्त्र ही नहीं है, अपितु शरीर विज्ञान, मानव विज्ञान, मनोविज्ञान, तत्व विज्ञान, दर्शन अन्यान्य पक्षों को व्याप्त कर लेता है। अतः निःसंदेह अद्भुत समन्वित रूप है जो सम्पूर्ण जीवन के शास्त्र एवं धर्मशास्त्र का एक ऐमा यह एक संपूर्ण जीवन विज्ञान है। अनुसार भारतीय संस्कृति के आद्य खोत वेद और उपनिषद के बीज ही शास्त्र केवल भौतिक तत्वों तक ही सीमित नहीं है, अपितु आध्यात्मिक इसके अतिरिक्त समकालीन होने के कारण दर्शन शास्त्र एवं धर्म शास्त्र वर्तमान में उपलब्ध वैदिक आयुर्वेद साहित्य के आयुर्वेद में प्रसार को प्राप्त हुए हैं। यही कारण है कि आयुर्वेद तत्वों के विश्लेषण में भी अपनी मौलिक विशेषता रखता है। ने आयुर्वेद के अध्यात्म संबंधी कतिपय सिद्धान्तों को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। यही कारण है कि आयुर्वेद का अध्यात्म पक्ष भी उतना ही सबल एवं परिपुष्ट है जितना उसका भौतिक तत्व विश्लेषण संबंधी पक्ष है। इसी का परिणाम है कि भारतीय संस्कृति के विकास में जहां धर्म-दर्शन-नीति शास्त्र आभार शास्त्र-व्याकरण-साहित्य-संगीत-कला आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है वहां आयुर्वेद शास्त्र ने भी अपनी जीवन पद्धति तथा शरीर, मन और बुद्धि को आरोग्य प्रदान करने वाले विशिष्ट सिद्धान्तों के द्वारा उसके स्वरूप को स्वस्थ और सुन्दर रखने के लिए अपनी विचारधारा से सतत आप्यायित किया है । इस संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि चाहे अभ्युदय प्राप्त करना हो या निःश्रेयस, दोनों की प्राप्ति के लिए मानव शरीर की स्वस्थता नितान्त अपेक्षित है । स्वस्थ शरीर ही समस्त भोगोपभोग अथवा मनःशान्तिकारक या आत्म - अभ्युन्नतिकारक देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, सयम, तप, त्याग, दान आदि धार्मिक क्रियाएं करने में समर्थ है । विकारग्रस्त अथवा अस्वस्थ शरीर न तो भौतिक विषयों का उपभोग कर सकता है और न ही धर्म का साधन । इसीलिए चतुर्विध पुरुषार्थ का मूल आरोग्य को प्रदान करने और विकारग्रस्त शरीर की विकाराभिनिवृत्ति करने में एक मात्र आयुर्वेद ही समर्थ है। यही कारण है कि आयुर्वेद को ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग माना गया है। भारतीय संस्कृति में जो स्थान धर्म-दर्शन आदि का है वही स्थान आयुर्वेद का भी है। आयुर्वेद शास्त्र की यह एक जैन प्राच्य विद्याएं Jain Education International For Private & Personal Use Only १६६ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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