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________________ के शिलालेख ( संख्या ४७) तथा शक् संवत् १०६५ के शिलालेख ( संख्या ५०) के अनुसार व्याकरण विषयक ज्ञान में मेघचन्द्र की पूज्यपाद देवनन्दी से उपमा देते हुए पूज्यपाद देवनन्दी को सभी वैयाकरणों में शिरोमणि कहा गया है।" श्रवणबेलगोल ग्राम के ही शक संवत् १०२२ के शिलालेख ( संख्या ५५ ) के अनुसार जिनचन्द्र के जैनेन्द्र व्याकरण विषयक ज्ञान को स्वयं पूज्यपाद देवनन्दी के ज्ञान का ही समरूप बतलाया है। श्रुतकीर्ति (१२ वीं शताब्दी ई०) ने पंचवरतु प्रक्रिया में जैनेन्द्र-व्याकरण पर लिखे गए न्यास, भाष्य, वृत्ति, टीका आदि की ओर निर्देश किया है। दोध के रचयिता नोपदेव (१२ वीं तब्दी ई०) ने पूज्यपाद देवनन्दी को पाणिनि प्रति महान वैयाकरणों की कोटि में रखा है।' मुग्धबोभ की पारिभाषिक (एकाक्षरी) पर जैनेन्द्र व्याकरण की पारिभाषिक संज्ञाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। उपरिनिर्दिष्ट प्रभावों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि १३ वीं शताब्दी ई० तक जैनेन्द्र व्याकरण का पठन-पाठन प्रचलित रहा। परन्तु १३ वीं शताब्दी ई० के उपरान्त उक्त व्याकरण के पठन-पाठन के विशेष प्रमाण नहीं मिलते। " इसके निम्ननिर्दिष्ट कारण हैं १. ( ( लौकिक संस्कृत भाषा के प्रसंग में) जैनेन्द्र-व्याकरण का मूल आधार अष्टाध्यायी है। जैनेन्द्र व्याकरण में वैदिक और स्वर प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों का प्रतिपादन नहीं किया गया है, जबकि अष्टाध्यायी वैदिक और लौकिक संस्कृत दोनों भाषाओं के लिए उपयोगी व्याकरण ग्रन्थ है । सम्भवतः इसी कारण से विद्वानों को अष्टाध्यायी के अतिरिक्त अन्य व्याकरण ग्रन्थ को पढ़ने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । २. संस्कृत विद्वानों में त्रिमुनि व्याकरण के लिए आदर की भावना थी तथा अष्टाध्यायी को सम्पूर्ण भारत में पठनपाठन की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया तथा जैनेन्द्र व्याकरण जैन सम्प्रदाय तक ही सीमित रह गया। २. पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों में संक्षिप्तता लाने की दृष्टि से एकाक्षरी संज्ञाओं का प्रयोग किया परिणामस्वरूप सूत्रों में संक्षिप्तता का समावेश तो हुआ किन्तु सूत्र क्लिष्ट बन गए। साधारण पाठको को संज्ञाओं की दृष्टि से अष्टाध्यायी की तुलना में जैनेन्द्र व्याकरण अपेक्षाकृत क्लिष्ट प्रतीत हुआ । ४. १६८ ५. शाकटायन व्याकरण के प्रकाश में आने के उपरान्त तो जैनेन्द्र व्याकरण का महत्त्व और भी कम हो गया । धार्मिक भावना से अभिभूत होकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायियों ने शाकटायन व्याकरण को ही अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से महत्त्व दिया । आधुनिक काल में जैनेन्द्र व्याकरण का अध्ययन केवल दक्षिणी भारत के दिगम्बर जैन सम्प्रदाय तक ही सीमित है ।" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैनेन्द्र महावृत्ति ही उक्त व्याकरण का उत्तम संस्करण है । Jain Education International रामचन्द्र भट्टोजि दीक्षित प्रभृति विद्वानों द्वारा प्रक्रिया ग्रन्थों की रचना के उपरान्त शिक्षा संस्थानों में प्रक्रिया विधि से ही पठन-पाठन होने लगा ! अतएव शिक्षा संस्थानों में जैनेन्द्र व्याकरण की उपादेयता को महत्त्व नहीं दिया गया । १. सयं व्याकरणे विपश्विदधिपः श्री पूज्यपादस्स्वयं सेविद्योतममेधचन्द्रमुनियो वादीभपञ्चानन: । जैन शिलालेख संग्रह, प्र० भा० सम्प० - हीरालाल जैन, बम्बई, १९२८ १० ६२, ७५. २. जैनेन्द्र पूज्य ( पाद: ) " वही, पृ० ११९. 4. मूत्रस्तम्भसमुद्धृतं प्रविससन्यासोरुरत्न क्षितिश्रीम वृत्तिकपाटसपुटयुतं भाष्योऽय शय्यातलम् । मामाचन्द्रमसा पुचवस्तुकमियं सोपानमारोह प्रेमी, नाथूराम, जै० सा० इ०, पृ० ३३ पर उद्धृत. ४. इन्द्रश्चन्द्रः कामकृत्स्नाविशली - शाकटायन: । पाणिन्यमर जैनेन्द्रा जयन्त्यष्टा दिशाब्दिक ॥ बोपदेव, कविकल्पद्र म, पू० १. ५. बेल्वाल्कर, एस० के०, सि० सं० ग्रा०, पृ० ५६. ६. येल्वाल्कर, एस० के०, सि० सं ग्रा०, पृ० ५६. ******** आचार्य रत्न श्री देशभूषण जो महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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