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अष्टाध्यायी के सभी वैदिक प्रयोग संबंधी नियमों के लिए पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्र नहीं दिए हैं, किन्तु कुछ वैदिक नियमों के समकक्ष सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण में उपलब्ध होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के प्रयोग उस समय लोक भाषा में प्रचलित थे इस प्रकार के सूत्रों की सूची निम्न निर्दिष्ट है—
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जं० व्या०
१. अनन्तस्वापि प्रश्नाख्यानयो: ५३१०२.
२.
एचोदेः पूर्वस्यात्परस्येदुतौ, २१३११०४.
३. ओमभ्यादाने, ५।३।६५.
४. कोपाऽसूयासम्मतौ म्रौ बा, ५।३।१०१.
५. क्षियाशी: प्रेषेषु मिङाकाङ, क्षम् ५।३।१०२.
६. विदित्युपमा ५।३।१००.
७. पूजिते, ५३२६६
८. प्रतिश्रवणे ५ / ३ / ६८
कम
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६. बहुत
३/२/६० १०. मन्वन्क्वनिढिवचः क्वचित् २ / २ / ६२
११. यवावचि सन्धो ५/३/१०५
१२. वा है: पृष्टप्रत्युक्तौ ५ / ३ / ९६
१२. विचार्य पूर्वम् ४/२/१७
१४. हेमन्तासम् ३/२/१३८
अभयनंदी ने उपर्युक्त सूत्रों के वैदिक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। अष्टाध्यायी के सूत्रों में निर्दिष्ट 'छन्दसि' शब्द का पूज्यपाद देवनन्दी ने निराकरण किया है।
१. अग्रवाल, वासुदेवशरण, जं०म० वृ, भूमिका, पृ० १२.
जैन प्राच्य विधाएं
अष्टा०
अनन्तस्यापि प्रनाख्याय २१०३ एचोऽप्रगृह्यस्यादूराद्धूते पूर्वस्याद्धं स्यादुत्तरस्येदुती,
जैनेन्द्र व्याकरण का परवर्ती इतिहास
जैन विद्वान् की कृति होने के कारण जैनेन्द्र व्याकरण में जैन प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरण ब्राह्मणवाद के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है। उक्त ध्याकरण ग्रन्थ पर लिखी गई टीकाओं से इस व्याकरण की प्रसिद्धि सहज ही अनुमेय है । अभयनन्दी कृत महावृत्ति जैनेन्द्र व्याकरण की एक विस्तृत एवं श्रेष्ठ टीका है। उक्त टीका में पाणिनीय व्याकरण की सामग्री की रक्षा करने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है। जैनेन्द्र महावृत्ति पर काशिकावृत्ति का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । ऐसा होते हुए भी अभयनन्दी-कृत जैनेन्द्र महावृत्ति में ऐसी सामग्री भी उपलब्ध है, जिसको काशिकावृत्ति में स्थान नहीं दिया गया है । उदाहरणस्वरूप सूत्रों के उदाहरणों में जैन तीर्थंकरों, महापुरुषों तथा जैन-ग्रन्थों के नाम उपलब्ध होते हैं। इसके साथ ही साथ कात्यायन के वार्तिक और पतंजलि - कृत महाभाष्य की इष्टियों में सिद्ध किए गए नए रूपों को पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों में अपना लिया है। इसलिए भी यह व्याकरण ग्रन्थ जैन सम्प्रदाय में विशेष लोकप्रिय रहा होगा। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार 'इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायन के वार्तिक और पतंजलि के भाष्य के पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैन धर्म और दर्शन पर भी उनका असामान्य अधिकार था। वे गुप्त युग के प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनका तत्कालीन प्रभाव कोंकण के नरेशों पर था, किन्तु कालान्तर में जो सारे देश की विभूति बन गए।" अनेक विद्वानों ने किसी आचार्य की व्याकरण - शास्त्र में निपुणता को दर्शाने के लिए पूज्यपाद देवनन्दी को उपमान रूप में ग्रहण किया है | श्रवणबेलगोल ग्राम के उत्तर में स्थित चन्द्रगिरि पर्वत के शक् संवत् १०३७
८६८।२।१०७.
ओमभ्यादाने ८७
स्वरितमाम्रेडिते सूयासंमतिकोप कृत्सनेषु, ८२११०३. क्षियाशी: प्रषेषु तिङाकाङक्षम्, ८२१०४. चिदिति चोपमार्थे प्रयुज्यमाने २०१०१. अनुदात्त प्रश्नान्ताभिपूजितयो:, ८२/१००. प्रतिश्रवणे च ८/२/१६
कद्र, कमण्डल्वोश्छन्दसि ४/१/७१ आतमनिनिनिपश्च ३/२/०४ तयोर्वावचि संहितायाम् ८ / २ / १०८ विभाषा पृष्ठप्रतिवचने ८/२/१० पूर्व तु भाषायाम् ८/२/१८ हेमन्ताच्च ४/३/२१
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