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है। इस प्रकार अष्टाध्यायी एवं चांद्र-व्याकरण दोनों ही ग्रन्थों में उपर्युक्त रूपों की सिद्धि में 'य' को 'अन' आदेश करने की आवश्यकता पड़ती है। पूज्यपाद देवनन्दी ने प्रक्रिया में सरलता एवं संक्षिप्तता लाने के उद्देश्य से उपयुक्त रूपों की सिद्धि तनट् प्रत्यय के योग से की है।' तथा पाणिनि एवं चन्द्रगोमी द्वारा दो सत्रों को सहायता से सिद्ध किए गए शब्दों को एक ही सूत्र से सिद्ध किया है।
पूज्यपाद देवनन्दी ने 'नत्र उपपद' पूर्वक चपल शब्द को जित्, णित् तद्धित प्रत्यय परे रहते नित्य वृद्धि (ऐप ) का विधान किया है तथा पूर्वपद नञ् (अ) को विकल्प से वृद्धि का 'विधान' करके 'अचापलम् एवं 'आचापलम्' तद्धितान्त शब्दों की सिद्धि की है।' पूज्यपाद देवनन्दी से पूर्ववर्ती वैयाकरणों ने उपयुक्त दोनों शब्दों के लिए कोई नियम नहीं दिया है । इससे यह सर्वथा अन मेय है कि पज्यपाद देवनन्दी के समय में 'अचापलम्' एवं 'आचापलम्' दोनों शब्द भाषा में प्रयुक्त होते थे। अनेन्द्र-व्याकरण में वैदिक प्रयोग संबंधी नियमों का स्वरूप
जैनेन्द्र-व्याकरण लौकिक भाषा का व्याकरण है । पूज्यपाद देवनन्दी ने स्वर एवं वैदिक प्रक्रिया संबंधी नियमों को जनेन्द्रव्याकरण में स्थान न देते हुए भी वैदिक साहित्य में प्रयुक्त होने वाले कुछ शब्दों को 'कृत्प्रयत्ययों के प्रसंग में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के शब्द सान्नायय, धायया, आनाय्य', कुण्डपायय, सञ्चाय्य, परिचाय्य, उपचाय्य, चित्य, अग्निचित्ये' एवं ग्रावस्तूत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पज्यपाद देवनन्दी के समय में लौकिक संस्कृत में इन शब्दों का प्रयोग होता था । प० अंबालाल प्रेमचन्द्र शाह के अनसार जैनेन्द्र-व्याकरण एक लौकिक-व्याकरण है तथा इसमें छान्दस् प्रयोगों को भी लौकिक मानकर सिद्ध किया गया है।
पज्यपाद देवनन्दी ने 'सास्य देवता" प्रकरण के अन्तर्गत शुक्र, अपोनप्त, अपान्नप्त महेन्द्र, सोम वाय, उषस', द्यावापथिवी. सनाशीर. मरुत्वत . अग्नीषोम, वास्तोष्पति, गहमेध आदि देवताओं के नामों का उल्लेख किया हैं।' जेनेन्द्र-व्याकरण में तेन पोरन .. ३२३७६) सत्र के प्रसंग में वैदिक शाखाओं एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों के नामों का भी निर्देश उपलब्ध होता है। यद्यपि उपर्यत' नामों का और साहित्य के लिए किञ्चिद मात्र भी उपयोग न था तथापि अष्टाध्यायी की सामग्री की रक्षा करने के उद्देश्य से पज्यपाद देवनन्दी ने उन नामों को जैनेन्द्र व्याकरण में स्थान दिया है।
जैनन्द-व्याकरण में कौ वेतौ (जै० व्या० १११२४), 'उञः' (ज० व्या० १२०२५) एवं 'ऊम्' (जै० व्या. १९२६) सूत्र दिए गए हैं। पं० युधिष्ठर मीमांसक के अनुसार उपयुक्त सूत्रों के पाठ एवं वृत्ति से यह प्रतीत होता है कि इनके प्रयोग क र लोकभाषा है किन्त प्रतिपाद्य विषय वैदिक है। उनका कथन है कि जिस प्रकार पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी केणे' | ET १।१।१३) तथा ईदूतो च सप्तम्यर्थे' (अष्टा० १११९) सूत्रों के प्रतिपाद्य विषय के लिए सूत्रों की रचना नहीं की वैसे ही उप के लिए भी न करते । पं० युधिष्ठिर मीमासक के अनुसार उपयुक्त सूत्रों के उल्लेख से यह सुस्पष्ट है कि पूज्यपाद देवनन्दी को लौकिक भाषा से सम्बद्ध माना है, किन्तु यह उचित नहीं है क्योकि लोक में ऐसे प्रयोग उपलब्ध नहीं होते।"
१. युनोरनाकावसः, चा० व्या० ५/४/१. २. सायश्विरम्प्राह प्रमझिम्यस्तनट्, जै० व्या० ३/२/१३६. ३. नम: मुचीश्वरक्षेत्राकुशल चपल निपुणानाम्, वही, ५/२/३४. ४. पाग्यसान्नायनिकाय्य धाग्याsनाय्या प्रणाय्या मानहविनिवाससाभिधे न्यनित्यासम्मतिय, वही, २/१/१०४. १. कुणपाच्या संचाम्पपरिचाय्योपचाग्य चित्पाग्निचित्याः, वही, २/१/१०१. ६. ग्रावस्वर: क्विप्, वही, २/२११५६. ७. शाह, अंबालाल प्रे०० सा० ० इ०, पं० भा०, पृ.६. ८. सास्य देवता, जै० व्या० ३/२/१९. १. प्र.-वही, ३/२/२१-२७. १०. ०-वही; ३/३/७६-८० १. मीमांसक, युधिष्ठिर, जै० म०. भूमिका, ४६.
माचार्यरल भी वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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