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________________ पूर्ववर्ती वर्ण उदात्त होता है। जैनेन्द्र व्याकरण में उदात्तादि संबंधी अनुबन्धों की आवश्यकता न होने के कारण उपरिनिर्दिष्ट 'ण्यत्' एवं 'खल' प्रत्ययों के स्थान पर क्रमश: ‘ण्य' एवं 'ख' प्रत्ययों का ही निर्देश किया गया है । जैनेन्द्र-व्याकरण में उदात्तादि संबंधी अनबंधों के निराकरण से कृत्प्रत्ययों की संख्या में पर्याप्त कमी हुई है । उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि अष्टाध्यायी के शानच्, शानन एवं चानश् कृत्प्रत्ययों के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में शान प्रत्यय का प्रयोग किया गया है । अष्टाध्यायी के ण्वुल् एवं ण्वुच् प्रत्ययों के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में 'वण्' प्रत्यय निर्दिष्ट है। इस प्रकार पाणिनि ने जिन शब्दों की सिद्धि भिन्न भिन्न प्रत्ययों के योग से की है उनकी सिद्धि के लिए पूज्यपाद देवनन्दी ने एक ही प्रत्यय का निर्देश किया है । उदाहरण के लिए पाणिनि ने 'पचमानः' की सिद्धि शानच, पवमानः एवं यजमान: की सिद्धि शानन्' तथा भुजानः (भोगं भुजान:) एवं विभ्राणः (कवचः विभ्राणः ) की सिद्धि चानश प्रत्यय के योग से की है। किन्तु पूज्यपाद देवनन्दी ने उपयुक्त शब्दरूपों को सिद्धि केवल एक ही प्रत्यय 'शान' के योग से की है।' एक ही शब्द की सिद्धि के हेतु अष्टाध्यायी, कातन्त्र व्याकरण, चान्द्र व्याकरण एवं जैनेन्द्र व्याकरण में भिन्नभिन्न प्रत्ययों का प्रयोग किया गया है। किन्तु सभी व्याकरण-ग्रन्थों में शब्दरूप समान ही निष्पन्न हुआ है। उदाहरण के लिए १. जल्पाकः, भिक्षाकः, कुट्टाकः प्रभृति कृदन्त रूपों की सिद्धि में पाणिनि' एवं चन्द्रगोमी' ने 'षाकन' प्रत्यय का प्रयोग किया है। कातन्त्र व्याकरण में पाक प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। जबकि पूज्यपाद देवनन्दी ने उपयुक्त शब्दों की सिद्धि टाक' प्रत्यय के योग से की है।" २. नर्तकः, खनकः, रजक: प्रभृति कृदन्त रूपों की सिद्धि पाणिनि' एवं चन्द्र गोमी" ने 'वुन्' प्रत्यय के योग से की है। कातन्त्र-व्याकरण में उपर्युक्त रूपों की सिद्धि 'वुष्' प्रत्यय के योग से की गई है।" पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्य'क्त शब्दों को ट्व प्रत्यय के योग से सिद्ध किया है। ३. इसी प्रकार दात्रम, नेत्रम्, शस्त्रम् आदि कृदन्त शब्दों की सिद्धि में अष्टाध्यायी" एवं कातन्त्र व्याकरण" में 'ष्ट्रन' कृत्प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। चन्द्रगोमी ने (ष्ट्रन् उणादि प्रत्ययान्त) उपर्युक्त शब्दों का वृत्ति में निर्देश किया है। जबकि पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्युक्त शब्दों को 'ट्' प्रत्यय के योग मे निष्पन्न किया है।" १. लिति, वही, ६।१११६३. २. ज्य:, जै० व्या० २/१/१०१. ३. स्वीषसि कृच्छाकन्छ ख:, वही, २/३/१०४. ४. लट: शत् शानचावप्रथमासमानाधिकरणे, प्रष्टा० ३/२/१२४. ५. पूड, यजो: शानन्, वही, ३/२/१२८. ६. ताच्छील्यवयोव वनशक्तिषु चानश्, वही, ३/२/१२६. ७. तस्य शतृशानायकाय; पूछ पजोः शानः, वय: शक्तिलीले; जै० व्या २/२/१०२; २/२/१०६; २/२/१०७. ८. जल्प-भिक्षकट्टलुण्टवृक्षः षाकन्, मष्टा० ३/२/१५५. ६. जल्प भिक्षकट्टल टवृक्ष: पाकन्, चा० व्या१/२/१०३. १०. वृड मिक्षि ल.ष्टि-जल्पि कुट्टां पाकः, का० व्या०, कत् प्रकरण २८०, सम्पा० गुरुनाथ विद्यानिधि भट्टाचार्य, कलकत्ता, बगाब्द, १३४४. ११. अल्पभिक्षकुट्टल ण्टवडष्टाकः,जै० भ्या० २/२/१३८. १२. शिल्पिनि ब्वन. अष्टा० ३/१/१४५. १३. नृतिबनिरज: शिल्पिनि वुन, चा०व्या० १/१/१५०. विष का० भ्या०.०प्र०१४५. शिल्पिनि ट्वः,जेण्या०२/१/११६. १६. बाम्नीशस युयुजस्तु तुदसिसिच मिहपतदश नह : करणे, अष्टा०३/२/१८२. १७. नी दाप-शस-य-युज स्तु-तुद-सि-सिंच मिह-पत दनश-नहां करणे, का० व्या०,०प्र० ३०६. १८. पा . १/२/१२३. १९. बाम्नीशसययुज स्तृतुदसिसिचमिहपतदशनह: करणे ब्रट,०व्या. २/२/१६.. जन प्राच्य विधाएं १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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