SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1028
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. व्यावलेखी, व्यावहारी प्रभृति कृदन्त शब्दों की सिद्धि अष्टाध्यायी', कातन्त्र व्याकरण एवं चान्द्र व्याकरण' में __णच् प्रत्यय के योग से की गई है । पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्युक्त रूपो की सिद्धि 'ञ' प्रत्यय द्वारा की है। अष्टाध्यायी' एवं कातन्त्र व्याकरण' में 'णम्' (णमुल्) प्रत्ययान्त रुक्षपेषं शब्द की सिद्धि की गई है । चान्द्रवृत्ति में भी किषम' शब्द निर्दिष्ट है। पूज्यपाद देवनन्दी ने 'रूक्षपेषं' शब्द का निर्देश न करके उसके स्थान पर (णम् प्रत्ययान्त) भक्षपेषं शब्द की सिद्धि की है। सम्भब है कि पूज्यपाद देवनन्दी के समय में उक्त शब्द भाषा में प्रयुक्त होता था। हत् (तद्धित) सत्र अन्य सूत्रों की अपेक्षा जैनेन्द्र-व्याकरण में तद्धित से संबंधित सूत्रों की संख्या अधिक है। पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्रपाकरण के ३/१/६३ सूत्र से लेकर सम्पूर्ण तृतीय अध्याय, चतुर्थ अध्याय के सम्पूर्ण प्रथम पाद एवं द्वितीय पाद के ६४वें सत्र नति से संबंधित नियमों को प्रस्तुत किया है । तद्धित संबंधी अन्य कुछ नियम जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के चतर्थ पाद'. चत अध्याय के चतर्थ पाद", पंचम अध्याय के द्वितीय" तथा तृतीय पादों के कुछ सूत्रों में निर्दिष्ट हैं। तदिधत' के लिए जैनेन्द्र-व्याकरण में 'हृत्' संज्ञा का प्रयोग किया गया है।" जैनेन्द्र-व्याकरण के तद्धित प्रत्यय अष्टाध्यायी. कातन्त्र एवं चान्द्र-व्याकरण के तद्धित प्रत्ययों से अनुबन्ध की दृष्टि से भिन्न हैं । नीचे दी गई प्रत्यय-सूची से यह स्पष्ट हैजै० व्या अष्टा० काव्या चा व्या० १. अ, ४/१/५०. अच्, ५/२/१२७ अच्, ४/२/१४७ २. अ, ४/१/७८ अत्, ५/३/१२ ३. अ, ३/३/८. अल, ४/३/३४ वा० ४. अक. ४/१/१३०. अकच्, ५/३/७१. अकच्, ४/३/६० ५. अञ , नुगागम, ३/१/७२. नत्र, स्नन ४/१/८७. ना , स्ना, २/४/१३. ६. अड, वु, ४/१/१३६. अडच्, वुच्, ५/३/८० ड, अकच ४/३/६५ ७. अण, ३/२/८५. अञ , ४/२/१०८. अ, ३/२/१६ ८. अण, ञ, ४/२/२२. णच्, अञ, ५/४/१४ णच्, अण, ४/४/२१. ६. अतस्, ४/१/६४. अतसुच्, ५/३/२८ तस्, ४/३/३८. १०. अस्तात , ४/१/६२. अम्ताति, ५/३/२७. अस्ताति, ४/३/२८. ११. आकिन्, ४/१/११३. आकिनिच्, ५/३/५२. आकिनिच्, ४/२/६७. १२. आल, आट ४/१/४६. आलच , आटच्, ५/२/१२५ आलच्, आटच् ४/२/१४६. १३. इत, ३/४/१५७ इतच्, ५/२/३६ इतच , ४/२/३७. । । । । । । । । । । । । । १. कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम्, मष्टा० ३/३/४३. २. कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम्, का. व्या०,०प्र० ३५७. व्यतिहारे णच, चा० न्या० १/३/७६. ४. कर्मव्यतिहारे ब:,जै० व्या० २/३/७६. ५. शुष्क पूर्णरुक्षेष पिषः, अष्टा० ३/4/३५. ६. शुकचूर्णरुक्षेषु पिषः, का. व्या०.१० प्र०४४७. ७. चा० ० १/३/१३५. ८. शुष्कचूर्णमझेषु पिष:, जै० व्या० २/४/२.. ९. वही, १/४/१३०-१४१. १०. जे. ज्या०, ४/४/१२३, १३०-१३५, १४१-१६६. ११. वही, ५/२/५-३५, ५४, ५५. १२. वही, ५/३/१-१३, ३१-३५. १३. हृतः, वही, ३/१/६१. १६२ आचार्यरल श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy