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कातन्त्र व्याकरण एवं चान्द्र व्याकरण में उपलब्ध कृत्प्रत्ययों से स्वरूप की दृष्टि से भिन्न है। निम्नलिखित तालिका से यह सुस्पष्ट हैजै० व्या० अष्टा० का० व्या० (कृ० प्र०)
चा० व्या० १. अ, २/२/१४. अच, ३/२/९.
अच्, १६१.
अच्, १/२/३ वृ० २. अच्, २/३/५२. अप, ३/३/५८.
अल्, ३५८.
अप्, १/३/४८, ३. अतृ, २/२/८७. अतृन्, ३/२/१०४.
अन्तृन, २४५.
अतृन्, १/२/७२. ४. इष्णु, २/२/११४. इष्णुच्, ३/२/१३६.
इष्णुच्, २६१.
इष्णुच्, १/२/६०. ५. क्मर, २/२/१४३. क्मरच् ३/२/१६०.
मरक्, २८५.
क्मरच्, १/२/१०६.. ६. क्लुक, क्रुक, क्लुकन्, क्रुकन् ३/२/१७४,
रुक, लुक ३०१.
क्रु, कन, १/२ २/२/१५३. __३/२/१७४. वा०
१२१. ७. क्वि, २/२/५६. क्विन्, ३/२/५८.
क्विप्, २२०.
क्विन्, १/२/४८. ८. ख, २/३/१०४. खल्, ३/३/१२६.
खल, ४१६.
खल्, १/३/१०३. ६. , २/३/७६. णच, ३/३/४३.
णच्, ३५७.
णच्, १/३/७६ १०. जिन्, २/३/६६ इनुण, ३/३/४४.
इनुण, ३५६.
इनु, १/३/७३. ११. टाक, २/२/१३८. षाकन्, ३/२/१५५.
षाक,२८०.
षाकन्, १/२/१०३ १२. ट्वु, २/१/११६. बुन ३/१/१४५.
वुष, १४५.
वुन, १/१/१५७. १३. ण्य, २/१/१०२ ण्यत्, ३/१/१२५.
ध्यण, १२१.
ण्यत्, १/१/१३२. १४. ण्यु, थक, २/१/१२०. थकन्, ण्युट्
थक, ण्युट, १४६, १४७,
थकन् ण्यट् १/१/१५४ ३/१/१४६, १४७
१५५, १५. ण्वु, २/१/१०६. ण्वुल, ३/१/१३३.
पुण, १३१
ण्वुल्, १/१/१३६ १६. त्र, ४/४/१२. न्, ६/४/६७.
वन्, १६.
त्रन्, ६/१/६०. १७. त्रट, २/२/१६०. ष्ट्रन्, ३/२/१८२.
ष्ट्रन्,३०६. १८. प्य, ५/१/३१. ल्यप्, ७/१/३७.
यप्, ४८५.
ल्या , ५/४/६. १६. वन्, २/२/६२. वनिप्, ३/२/७४.
वनिप्, २१६.
वनिप् १/२/५३. २०. वनिप्, २/२/८६. ङ वनिप्, ३/२/१०३.
ङवनिप् २४४.
क्वनिप् वनिप्
- १/२/७१. वृ० २१. वसु, २/२/८८. क्वसु- ३/२/१०८.
क्वंसु, २४६.
क्वसु, १/२/७४. २२. वुण, २/३/६०. ण्वुल ३/३/१०६.
वुन ४०५.
ण्वुच्, १/३/६१ २३. वुण् २/३/६२. ण्वुच्, ३/३/१११.
पुञ, ४०६.
ण्वुच्, १/३/६१. २४. शान, २/२/१०२ शानच्, ३/२/१२४.
आनश्, २४७. २५. शान, २/२/१०६. शानन्, ३/२/१२८.
शानङ, २५३.
शानच्, १/२/८६ २६. शान, २/२/१०७. चानश्, ३/२/१२/t.
शानङ, २५४.
शानच्, १//८७: २७. स्नुख, २/२/५४. खिष्णुच्, ३/२/५७.
खिष्ण, २०८.
खिष्णुच्, १/२/४६. कृत्प्रत्ययों की उपर्युक्त तुलनात्मक सूची से सुस्पष्ट है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने पाणिनि के द्वारा उदात्तादि स्वरों की दृष्टि से निर्दिष्ट अनुबन्धों का सर्वत्र निराकरण किया है । यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरण के कुछ कृत्प्रत्यय अष्टाध्यायी में निर्दिष्ट कृत्प्रत्ययों की अपेक्षा स्वरूप की दृष्टि से भिन्न हैं । अष्टाध्यायी में प्रत्ययों के अनुबन्धों का स्वरादि की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी का 'ण्यत्" कृत् प्रत्यय तित् होने के कारण स्वरित है' तधा 'खल्"प्रत्यय के लित् होने के कारण उससे १. ऋहलोर्ण्यत्, अष्टा० ३/१/१२४. २. तित् स्वस्तिम्, वही, ६/१/१८५. ३. ईषदुःषु कच्छाकृच्छार्थेष खन्, वही, ३/३/११६. १६०
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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