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________________ नामधातुओं की रचना में पूज्यपाद देवनन्दी ने क्यच् काम्य', क्या क्य, पिङ' एवं णिच् प्रत्ययों का प्रयोग किया है। नामधातुओं के प्रसंग में पाणिनि' तथा चन्द्रगोमी ने क्षीर एवं लवण शब्दों से क्यच् प्रत्यय परे रहते असुक् आगम का विधान किया है तथा पररूप सन्धि करके क्षीरस्यति एवं लवणस्यति रूपों की सिद्धि की है। पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्युक्त शब्दों से क्यच् परे रहते 'सुक' आगम का विधान किया है। जिसके परिणामस्वरूप पररूप सन्धि करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कृत-सूत्र पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण के द्वितीय अध्याय के अधिकांश सूत्रों में कृत् प्रत्ययों का उल्लेख किया है। जैनेन्द्र व्याकरण के प्रथम अध्याय के प्रथम" तथा चतुर्थ पाद१५ चतुर्थ अध्याय के तृतीय एवं चतुर्थ पाद", तथा पंचम अध्याय के प्रथम द्वितीय, तृतीय", तथा चतुर्थ“ पादों के कतिपय सूत्रों में भी कृत् संबंधी नियम उपलब्ध होते हैं। पाणिनि ने तिङ् प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययों की कृत् संज्ञा की है।" पूज्यपाद देवनन्दी ने लकारों के स्थान पर आने वाले तिप् तस्, झि'इत्यादि आदेशों को अष्टाध्यायी की अपेक्षा विपरीत क्रम से रखा है। तथा यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरण में 'तिङ प्रत्याहार के स्थान पर 'मिङ' प्रत्याहार का प्रयोग किया गया है। इसी के परिणामस्वरूप पूज्यपाद देवनन्दी ने मिङ् प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययीं की कृत्संज्ञा की है। अष्टाध्यायी में निर्दिष्ट 'कृत्य' प्रत्ययों की जैनेन्द्र ब्याकरण में 'व्य संज्ञा की गई है। जैनेन्द्र-व्याकरण में निर्दिष्ट अनेक कृत्प्रत्ययों का (कुछ प्रत्ययों के अतिरिक्त ) अष्टाध्यायी के कृत्प्रत्ययों से पूर्ण साम्य है । जैनेन्द्र ध्याकरण के कुछ कृत् प्रत्यय अष्टाध्यायी, १. स्वेप: क्यच्,, जै० व्या० २/१/६. २. काम्य:, वही २/१/७. ३. कत्त': क्यङ, सखं विभाषा, वही २/१/९. ४. डाउलोहितात् क्यष्, वही २/१/११. ५. पुच्छभाण्डचीवराणिङ्, वही २/१/१७. ६. मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणव्रतवस्त्रहलकलकृततूस्तेभ्यो णिच्, वही,२/१/१८. ७. प्रश्वक्षीर वृषलवणानामात्मप्रीती क्यचि: प्रतो गुणे, अष्टा० ७/१/५१ : ६/१/६७. ८. प्रसुक चात्तु म ; अतोऽदेङि ; चा० व्या०६/२/११; ५/१/१०१. .. क्षीरलवणयोलौं ल्ये,जै० व्या०५/१/३३. १०. वही, २/१/८०-१२३; २/२/१-६१, ६१, ६३-६०; १०२-१६६, २/३/८-१०६, १३४, १३६. १४३, १४५-१४८, १५०, २/४/४-६१. ११ वही, १/१/८०, ८१, ६२-६७. १२. वही, १/४/११०, १११, १२६. १३, वही, ४/३/१७-२५, ३४-३७, ४०, ४३-४५, ५६, १७६-१७८, २२५. १४. वही, ४/४/१६, २७, २८, ३०, ३१, ३८-४१, ४७, ५४, ५६-६०, ६४, ६८.६६, ८७-६२. १५. जै० व्या ५/१/३१, ४४-४७, ६५, ६८-१०४, ११६, ११७, १२०, १२२, १२४-१२८, १४१, १४२. १६. वही, ५/२/५६, ५८, ६४-६८, १४४-१४६, १८६. १७ बहो, ५/३/४०, ५६-७४. १८. वही. ५/४/५७,७०,७१, ७५, ८०, १०८-११४. १६. कृदतिङ्, प्रष्टा० ३/१/६३. २०. मिपवस्मस्सिप्थस्थतिप्तस्झी वहिमहि थासाथां ध्वंतातां झङ्। जै० व्या० २/४/६४. २१. मिशिद्ग: वही, २/४/६३. २२. कृदमिड., वही, २/१/८०. २३. कृत्या; प्राड. ज्वलः, अष्टा० ३/१/६५. २४. ण्वोाः , जै० व्या० २/१/८२. जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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