SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1024
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ε. १०. जैनेन्द्र व्याकरण में धातुओं को दस गणों में विभक्त किया गया है। वे गण तथा उनके विकरण इस प्रकार हैं जै० व्या० अष्टा का० व्या० ( आ० प्र० ) श २/१/६४ अन्, ६६ उज्, १/४ / १४५. अन्, ६६. उप्, १/४/१४३. श्य, २/१/६५. धनु २ / २ / ६६. २/१/७३. नम् २/२/७३. उ, २/१/७४. एना, २/१/७६ जिन्, २/१/२२. गण भ्वादिगण वादिगण अदादिगण दिवादिगण स्वादिगण तुदादिगण रुधादिगण तनादिगण क्रयादिगण चुरादिगण यन्, ६७. नु, ६८. अन्, ६६. न, ७०. उ, ७१. ना, ७२. इन, ४५. इस प्रकार अष्टाध्यायी में प्रयुक्त 'श्लु' एवं लुक् विकरणों के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में 'उज्' एवं प्रयोग किया गया है । उदात्तादि नियमों का अभाव होने के कारण अष्टाध्यायी के 'श्यन्' विकरण के स्थान पर जैनेन्द्र 'श्य' विकरण का प्रयोग किया गया है। ३/१/६० श्लु २/४/७५ लुकू, २/४/७२. पन, ३/१/६६. १. ब्लि ल ुङि, भ्रष्टा० ३ / १/४३. २. ब्लेः सिच्, भ्रष्टा० ३/१/४४. ३. सिजद्यतभ्याम्, का० व्या० प्रा० प्र० ५८. ४. सिलुंङि, जं० व्या०२ / १ / ३८. नु, ३/१/०३. श, २/१/७७ Jain Education International नम् ३/१/७५ उ, ३/१/७६ ना.३/१/०१ णिच्, ३/१/२५. चा० व्या० शब्, १/१/८२ १/१/०४ १/२/८३. १/१/०७ ५. णिनिभ्यः कर्तरि भ्रष्टा० ३/१/४८. चङ् ६. चिण् ते पदः, वही, ३/१/६०. ७. णिश्रित्र कमः कर्तरि चड चा० व्या० १/१ / ६८. ८. चिण् ते पदः, वही, १/१/७६. ९. श्रद्र.. कमिकारितान्तेभ्यश्चण् कर्त्तरि; इजात्मने पदेः प्रथमैकवचने; का० व्या० भा० प्र० ६०; ६३. १०. णिश्रि श्रुकमे करि कच्; निस्ते पदः; जे० व्या० २ / १ / ४३ २/१/५१. १५८ १/१/१५. पूज्यपाद देवनन्दी ने सिवन्त संबंधी नियमों को प्रस्तुत करते हुए प्रायः सर्वत्र ही पाणिनि का अनुकरण किया है। केवल एकदो स्थलों पर मौलिकता लाने का प्रयास किया है । लुङ् लकार के प्रसंग में उन्होंने पाणिनि द्वारा निर्दिष्ट चिल आगम का निर्देश नहीं किया है । पाणिनि ने सर्वप्रथम लुङ परे रहते धातु से चिल आगम का विधान किया है। तत्पश्चात् ब्लि को सिच् आदेश किया है।' सर्वधर्म' की भांति पूज्यपाद देवनन्दी ने भी सुङ परे रहते धातु से ब्लि का आगम तथा ब्लि को 'सिन्' आदेश न करके मौलिकता एवं संक्षिप्तता की दृष्टि से धातु से सि आगम का ही विधान किया है। * १/१/१२ श्नम् ११ / २ उ. १,१,९४, 1 इसी प्रकार पाणिनि ने कर्तुं याची लुङ परे रहते व्यन्त धातुओं तथा वि दु एवं तु धातुओं से परे सि आगम को प आदेश का विधान किया है तथा अचोकरत्, अशिश्रियत्, अदुद्रुवत् एवं असुस्रुवत् क्रियारूपों की सिद्धि की है ।" इसी लुङ् लकार के प्रसंग में पाणिनि ने √ पद् धातु से लुङ् लकार के त प्रत्यय के परे रहते लुङ् लकार में 'चिल' आगम को 'चिण्' आदेश का विधान किया है।' चन्द्रगोमी ने भी कर्तुं वाची लुङ परे रहते उपर्युक्त धातुओं से आगम का विधान किया है तथा पद धातु से लुङ लकार में त प्रत्यय परे रहते 'चिण्' आगम का विधान किया है । ' शर्ववर्मा ने उपर्युक्त दोनों आगमों के स्थान पर क्रमश: 'चण्’ एवं 'इच्' आगमों का विधान किया है।' पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों में मौलिकता लाने के उद्देश्य से उपर्युक्त रूपों की सिद्धि के लिए क्रमश: 'कच् एवं 'जि' आगमों का विधान किया है ।" For Private & Personal Use Only ना १/१/२०१ णिच्, १ / २ / ४५ 'उप' विकरणों का व्याकरण में माचार्यरन भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy