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________________ अध्याय के तृतीय' एवं चतुर्थ पाद तथा पंचम अध्याय के प्रथम, द्वितीय तथा चतुथ पादों में अधिकांश तिङन्त संबंधी नियम उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त प्रथम अध्याय के प्रथम पाद, द्वितीय अध्याय के द्वितीय पाद तथा पंचम अध्याय के तृतीय पाद में भी कतिपय तिङन्त संबंधी नियम प्रस्तुत किए गए हैं। क्रियापदों के निर्माण में पूज्यपाद देवनन्दी ने अधिकतर स्थलों पर पाणिनि का ही अनुकरण करते हुए कहीं-कहीं पर मौलिकता लाने का प्रयास किया है। अष्टाध्यायी एवं चान्द्र-व्याकरण' में 'लट्' आदि लकारों के स्थान पर तिप् तस् झि, सिप् तस् थ, आदि आदेशों का विधान किया गया है। कातन्त्र-व्याकरण में उपर्युक्त प्रत्ययों का सूत्र में उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु दुर्गसिंह ने वृत्ति में उन प्रत्ययों का निर्देश किया है।" जैनेन्द्र-व्याकरण में अष्टाध्यायी में निर्दिष्ट तिप्, तस , झि इत्यादि प्रत्ययों का ही परिगणन किया गया है, किन्तु क्रम बिल्कुल विपरीत है। सूत्र में उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष तथा प्रथमपुरूष के प्रत्ययों का क्रमशः समावेश किया गया है ।१२ भारतीय व्याकरण साहित्य में उपरिनिर्दिष्ट प्रत्ययों को इस क्रम से अन्य किसी वैयाकरण ने प्रस्तुत नहीं किया है। प्रत्ययों के इसी क्रम के परिणामस्वरूप पाणिनि के द्वारा निर्दिष्ट तिङ प्रत्याहार के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में मिङ प्रत्याहार का प्रयोग उपलब्ध होता है। मिङ प्रत्याहार बनाने के उद्देश्य से पागिनि द्वारा निर्दिष्ट महिङ प्रत्यय के 'ङ' को पूज्यपाद देवनन्दी ने अन्तिम प्रत्यय 'झ' के साथ युक्त किया है । पूज्यपाद देवनन्दी ने परस्मैपद का म" तथा आत्मनेपद का द" संज्ञा से निर्देश किया है। उपयुक्त १८ प्रत्यर्यो में से प्रथम प्रत्यय म संज्ञक तथा अन्तिम ६ प्रत्यय द संज्ञक हैं। उन्होंने आत्मनेपद तथा परस्मैपद के प्रत्येक वर्ग के नौ प्रत्ययों को अस्मद् युष्मद् तथा अन्य संज्ञाएं दी है तथा उन प्रत्ययों का एकवचन, द्विवचन एवं बहुवचन की दृष्टि से विभाजन किया है । जैनेन्द्र व्याकरण में पारम्परिक नौ लकारों का उल्लेख मिलता है। ये नौ लकार हैं-लट्, लिट्, लुट , लुट, लोट् लङ, लिङ लुङ एवं लुङ् । वैदिक शब्दों से सम्बद्ध नियमों का अभाव होने के कारण लेट् लकार का यहां सर्वथा अभाव है। १. वही, ४/३/१-५४. ११०-११७. २. वही ४/४/२, १३-७१, ७३, ७६, ७७, ८१-११७. ३. जै० व्या० ५/१/३-७, ३०, ३२, ३३, ३८-४३, ४८,७४-७६, ७८-१४०. ४. वही, ५/२/३६-४६, ५६-६३, ६६-६६, ११५-१४६, १५१-१९४. ५. वही, ५/४/४०-६१, ६८, ७८-८४, ९८-१०७. ६. वही, १/१/७५-६७. ७. वही, २/२/६१-१०१. ८. वहीं, ५/३/३६-३६, ४३-४५, ५२, ५५,५६, ८०-८२, ८७. ६. तिप्तस्झिसिप्यस्यमिब्वस्मस्ताताम्झ थासाथाम्ध्वमिड्वमिहिङ्, अष्टा० ३/४/७८. १०. लस्तिप्तस् झिसिपथस्थमित्वस्मस्तातां झयासाध्विमिट वहिमहिङ, चा० व्या० १/४/१. ११. का. व्या०, पाख्यात प्रकरण २४.३३ (दुर्गसिंह कृत) वृ०, सम्मा० गुरुनाय विद्यानिधि भट्टाचार्य, कलकता, शाब्द, १८५५. १२. मिब्वस्मस्सिप्थस्थतिप्तस्झीड्वमिहिथासाथां ध्वंतााझा जै० व्या ० २/४/६४. ३१. भिङ शिद्गः, वही. २/४/६३. १४. लो भम्. बही, १/२/१५०. १५. इडानं दः, वही, १/२/१५१. १६. मिङस्त्रिशोऽस्मा मदन्या:, वही, १/२/१५२. १७. एकद्विबहवश्चकश:. वही, १/२/१५५. जैन प्राच्य विद्याएँ १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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