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________________ जै. व्या० अष्टा० का० व्या० (च० प्र०) चा० व्या० ३. यत्समयाऽनुः, १/३/१२. अनुर्यत्समया, २/१/१५ अनुः सामीप्यायामयोः, २/२/8. ४. लक्षणेनाभिमुख्येऽभिप्रती, १/३/११. लक्षणेनाभिप्रती अभिमुख्ये, २/१/१४. लक्षणेनाभिप्रती २/२/८ अष्टाध्यायी के 'यस्य चायामः' (अष्टा० २/१/१६) एवं चान्द्र-व्याकरण के 'अनुः सामीप्यायामयोः' (चा०व्या० २/२/९) सत्र के स्थान पर जनेन्द्र-व्याकरण में समास के उदाहरण की दृष्टि से 'आयामिना' (जै० व्या० १/३/१३) सूत्र की उपस्थिति युक्तिसंगत है। __ कुछ समस्त पदों की सिद्धि की विधि में जैनेन्द्र-व्याकरण में, अष्टाध्यायी, कातन्त्र एवं चान्द्र-व्याकरण की अपेक्षा भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणतः-पाणिनि 'एवं चन्द्रगोमी ने सर्वप्रथम नन शब्द का सुबन्त के साथ समास किया है। तत्पश्चात् ना के नकार का लोप होकर (न (ञ) ब्राह्मण:-अब्राह्मणः) अब्राह्मणः रूप सिद्ध हुआ है । शर्ववर्मा ने 'न्' का लोप करके रूपसिद्धि (अ ब्राह्मणः) की है। पूज्यपाद देवनन्दी ने इस समस्त पद की सिद्धि भिन्न विधि से की है। उनके अनुसार 'न' पद का सुबन्त पद के साथ 'समास' होता है तथा यह समास 'नज तत्पुरुष' समास कहलाता है (नञ् ब्राह्मणः)।' तदुपरान्त उन्होंने 'ना' को 'अन' आदेश किया है ।' (अन् ब्राह्मण") तथा 'अन्' के नकार का लोप विधान करते हुए (अ ब्राह्मणः) उपयुक्त पद की सिद्धि की है। पाणिनि' तथा चन्द्रगोमी ने अजादि पद परे रहते 'न' के 'न्' का लोप करके (अ अश्वः) तथा अजादि पद के आदि अच् से पूर्व नडागम लगाकर (अ+नुट् +अश्वः) 'अनश्वः' समस्त पद की सिद्धि की है : शर्ववर्मा ने अक्षर विपर्यय (न अ. अश्वः अन्-अश्व:) करके 'अनश्वः' शब्द' की सिद्धि की है। पूज्यपाद देवनन्दी ने 'नुट्' आगम का 'प्रयोग' नहीं किया है। उन्होंने अजादि उत्तरपद परे रहते हुए 'न' को 'अन्' आदेश का ही विधान किया है (नग अन्तः अन् अन्तः) । यहाँ 'अन्' आदेश का पुनः निर्देश 'अन्' के नलोप की निवृत्ति के लिए ही किया गया है। अतः 'अनन्तः समस्त पद का निर्माण हुआ है। उपर्युक्त भिन्न विधि के फलस्वरूप जैनेन्द्र-व्याकरण में 'नमोऽन्' (ज० व्या० ४/३/१८१) एवं अचि (जै० व्या० ४/३/१८२) सूत्र नवीन प्रतीत होते हैं। तिङन्त सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के द्वितीय एवं चतुर्थ पाद", द्वितीय अध्याय के प्रथम", तृतीय एवं चतुर्थ पाद" तथा चतुर्थ १. न , नलोपो नञः ; अष्टा० २/२/६; ६/३/७३. २. न ; नमो नः, चा• व्या २/२/२०%; ५/२/६१. ३. नस्य तत्पुरुषे लोप्य:, का० व्या०, च० प्र० २८०. ४. नभ, जै० व्या० १/३/६८. ५. नमोऽन, वही, ४/३/१८१. ६. नखं मृदन्तस्याको, वही ५/३/३०. ७. नलोपो नमः; तस्मान्नुडचि; प्रष्टा० ६/३/७३, ६/३/७४. ८. नजो नः; ततोऽचि नुटू ; चा व्या०५/२/११%3; ५/२/६३. ६. स्वरेऽक्षरविपर्ययः, का. व्या०, च०प्र०२५१. १०. पचि, जै० व्या०, ४/३/१८२. ११. पुनर्वचन नरवनिवृत्त्यर्थम् , जै० म० वृ०४/३/१८२. १२. जै० व्या० १/२/६-८६, १४६-१५५. १३. वही. १/४/१०६-१२६, १४२-१५०, १५४. १४. बही, २/१/१-७८) १५. वही, २/३/१-७, १०७-१५२. १६. वही, २/४/१-३, ५४, ६३-६६. १५६ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभि नम्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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