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राजाराम जैन : रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक सामग्री : ६५७ अर्थात् 'हे मित्र, मुझ पर अनुरागी बनकर मेरी विनती सुन लीजिये एवं मेरे द्वारा इच्छित बलभद्र पुराण नामक रचना लिखकर मेरा नाम चन्द्रविमान में अंकित करा दीजिये.' हरिसिंह की उक्त प्रार्थना सुनकर कवि ने कई कारणों से अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए तथा रामचरित की विशालता का अनुभव करते हुए उत्तर दिया :
घडएण भरह को उवहि तोउ, को फणि सिरमणि पयडइ विणोउ । पंचाणण मुहि को खिवइ हत्थु, विगु सुत्तें महि को रयइवत्थु ।
बिणु बुद्धिएतह कब्बह पसारु, विरएप्पिणु गच्छमि केम पारु । -बलभद्र० १।४।१-४ अर्थात् 'हे भाई, रामचरित (अपर नाम बलभद्र-चरित) का लिखना सरल कार्य नहीं, उसके लिखने के लिये महान् साधना, क्षमता एवं शक्ति की आवश्यकता है. आप ही बताइये भला घड़े में समस्त समुद्रजल को कौन भर सकता है ? साँप के सिर से मणि को कौन ले सकता है ? प्रज्वालित पञ्चाग्नि में कौन अपना हाथ डाल सकता है ? बिना धागे से रत्नों की माला को कौन गूंथ सकता है ? बिना बुद्धि के इस विशाल काव्य की रचना करने में मैं कैसे पार पा सकूँगा? उक्त प्रकार से उत्तर देकर कवि ने साह की बात को सम्भवतः टाल देना चाहा, किन्तु साहू साहब बड़े ही चतुर थे. उन्होंने ऐसे अवसर पर वणिक्बुद्धि से कार्य किया. उन्होंने कवि को अपनी पूर्व मंत्री का स्मरण दिलाते हुए कहा कि :'कविवर, आप तो निर्दोष काव्य-रचना में धुरन्धर हैं. शास्त्रार्थ आदि में निपुण हैं. आपके श्रीमुख में तो सरस्वती का वास है. आप काव्य-प्रणयन में पूर्ण समर्थ हैं. अत: इस (रामचरित) ग्रन्थ की रचना अवश्य ही करने की कृपा कीजिये." बस, कवि की सहृदय भावुकता को उकसाने के लिए इतना कथन मात्र पर्याप्त था. अन्ततः वह 'रामचरित' लिखने के लिये तैयार हो जाता है. अपनी विद्वत्ता एवं सत्कवित्व के कारण कवि का समाज में बहुत ही उच्च स्थान था. सदाचरण, कार्यनिष्ठा, परदुःखकातरता, एवं परोपकारवृत्ति के कारण महाकवि रइधू ने क्या राजा और क्या रंक, सभी के हृदयों पर एकच्छत्र शासन किया था. यही कारण है कि यदि कवि क्वचित् कदाचित् किसी को कोई आदेश देता था तो उसे लोग अपने गौरव की बात मानते थे. तथा उसे पूर्ण करने में लोग अपना अहोभाग्य मानते थे. एक समय की घटना है कि महाकवि को 'पासणाह चरिउ' की रचना करने की इच्छा जागृत हुई तथा उसके लिए उन्हें आर्थिक सहयोग की आवश्यकता पड़ी. तब उन्होंने साहू कुल शिरोमणि श्रीखेमसिंह को आदेश दिया कि 'तुम इस ग्रन्थ' (पासणाह चरिउ) 'रचना का भार वहन करो.'२ साहू खेमसिंह ने जब यह सुना तो वे गद्गद् हो उठे. उनके शरीर में रोमांच हो आया तथा इस प्रकार के कवि के आदेश से उन्होंने अपने को गौरवान्वित समझकर उनका आभार माना. उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नता पूर्वक कवि से कहा :
णियगेहि उवराणउ कप्परुक्खु, तहु फलु को गउ बंछइ ससुक्खु । पुण्णेण पत्तु जइ कामधेणु, को हिस्सायइ पुणु विगयरेणु । तह पइ पुणु महु किउ सई पसाउ, महु जम्मु सयलु भो अज्जजाउ । तुहुँ धण्णु जासु एरिसउ चित्तु, कइयण गुणु दुल्लहु जेण पत्तु । -पासणाह० १।८।१-४
१. देखिये, बलभद्र० ११५।५-६. २. देखिये, पासणाह० ११७१२. ३. देखिये, पासणाह० १७.१३-१४.
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