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६५६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
अणइ हउ असेसु पूरेसमि, जं जं मग्गहु तं तं देसमि । पुणु पुणु एम तेण तहिं भणिउं, पुणु तंबोलु देवि सम्माणिउ । पुणु सुरिताण सीह णियभिच्चहु, सामिय धम्म चिंति मणिच्चहु । तहु पाएसु णिवेण पुणु दिण्णउ, कहिं धम्म सहाउ अछिण्णउ । कमलसीहु जं तुम्हें भासई, तं तहु पविहिज्जहि सुसमासइ ।
मणिवि पसाउ तेण पडिवणउ, अझ सामि किंकरु हउ धणउ।-सम्मत्त० १।११।६-२०. अर्थात् 'हे सज्जनोत्तम, जो भी पुण्यकार्य तुम्हें रुचिकर लगे उसे अवश्य ही पूरा करो । हे महाजन, यदि धर्म-सहायक
और भी कोई कार्य हों तो उन्हें भी पूरा करो. अपने मन में किसी भी प्रकार की शंका मत करो. धर्म के निमित्त आप संतुष्ट रहें. जिस प्रकार राजा वीसलदेव के राज्य में सौराष्ट्र (सोरट्ठि) में धर्म-साधना निर्विघ्न रूप से प्रतिष्ठित थी, वस्तुपाल-तेजपाल नामक व्यापारियों ने हाथीदांतों (?) से प्रवर तीर्थराज का निर्माण कराया था. जिस प्रकार पेरोजसाहि (फीरोजशाह) की महान् कृपा से योगिनीपुर (दिल्ली) में निवास करते हुए सारग ने अत्यन्त अनुराग पूर्वक धर्मयात्रा करके ख्याति प्राप्त की थी. उसी प्रकार हे गुणाकर, धर्मकार्यों के लिये मुझसे, पर्याप्त द्रव्य ले लो. जो कार्य करना है उसे निश्चय ही पूरा कर लो. यदि द्रव्य में कुछ कमी आ जाय तो मैं उसे पूर्ण कर दूंगा. जो जो माँगोगे वही-वही (मुँह माँगा) दूंगा. राजा ने बार-बार आश्वासन देते हुए कमलसिंह को पान का बीड़ा देकर सम्मानित किया. राजा का आश्वासन एवं सम्मान प्राप्त कर कमलसिंह अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा राजा से इतना ही कह सके कि हे स्वामिन् आज आपका यह दास धन्य हो गया.' महाकवि ने कमलसिंह की बात स्वीकार तो करली किन्तु फिरभी उसके मन में शंका होती है कि सम्भवत: दुर्जन उसके कार्यों में विघ्न बाधा उपस्थित करें, तब ? उस स्थिति में कमलसिंह का उत्साह प्रेरणा एवं साहस-भरा आश्वासन देखिये. वे कहते हैं :
संघाहियेण तातहु पउत्तु, भोकइ पहाण णिसुणहि णिरुत्तु । दुज्जण सज्जण ससहाव होंति, अवगुण गुणाइ ते सई जिलिंति । जिह उगह सीय रवि सीस हणम्मि, णिय पयइ ण मेल्लहि पुणु कहम्मि । चंदहु उज्जोयं तसइंसाणु, ताकिं सो छंडइ णियय ठाणु । जइ पुणु विउलूबहु दुक्खहेउ, ता रवि सुएवि किं णियय तेउ । जइ तक्कर साहुहु गउ सहेइ, ता किं सोजग्गंतउ रहेइ ।
जूवासएण किं कोविवच्छु, छंडइ भणु तणु इच्छु जिपसच्छु ।-सम्मत्त० १।१६।१-७ अर्थात् हे कविश्रेष्ठ, सुनिये, दुर्जन-सज्जन तो अपने-अपने स्वभाव से होते हैं। वे अवगुणों एवं सद्गुणों के बल पर ही जीवित रहते हैं. रवि एवं शशि एक ही आकाश में अपनी उष्णता एवं शीतलता का क्या परित्याग कर देते हैं ? धूलि के कणों से आच्छादित हो जाने पर भी क्या चन्द्रमा अपने प्रकाश को देना छोड़ देता है. राहु के द्वारा ग्रस्त हो जाने पर भी क्या सूर्य अपनी तेजस्विता छोड़ देता है. यदि चोर साहूकार की उपस्थिति न चाहे तो क्या वह संसार में रहना ही छोड़ दे. यदि जुआरी व्यक्ति किसी वस्तु को दाँव पर लगा दे तो क्या उससे वह वस्तु अप्रशस्त हो जाती है. तथा इससे दूसरा कोई अन्य सज्जन व्यक्ति उसकी चाह करना भी छोड़ दे. अतः हे कविवर, आप निश्चिन्त मन होकर अपनी काव्य रचना करें. महाकवि के एक दूसरे सहयोगी भक्त थे हरिसिंह साहू. उनकी तीव्र इच्छा थी कि उनका नाम चन्द्रविमान में लिखा जाय. अतः उन्होंने कवि से सविनय निवेदन किया कि :
महु सागुराव तहु मित्त जेण, विएणत्ति मझु अवहारि तेज । महु णामु लिहहि चंदहो विमाणु, छय वयणु सुद्ध णिय चित्ति ठाणु । --बलभद्र० २४११-१२
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