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६५८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
अर्थात् "हे कविवर, अपने ही घर में उत्पन्न हुए कल्पवृक्ष के सुखद फल को कौन नहीं खाना चाहेगा ? पुण्य से प्राप्त हुई कामधेनु को कौन शीघ्र ही नहीं दुहना चाहेगा ? आपने काव्य-रचना की स्वतः ही स्वीकृति देकर मुझ पर जो महती कृपा की है उससे मेरा समस्त जीवन ही सफल हो गया है. आप धन्य हैं जिन्हें कविजनों को दुर्लभ ऐसा सुन्दर एवं सरस हृदय प्राप्त हुआ है." इतना ही नहीं, जब 'पासणाह चरिउ' की परिसमाप्ति हुई तथा कवि ने साहू खेमसिंह को उक्त रचना समर्पित की तो साहू साहब ने उसे अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ ग्रहण किया तथा अत्यन्त हर्ष विभोर होकर उन्होंने कवि को द्वीप द्वीपान्तरों से मँगवाये हुए वस्त्राभूषणादि उपहार स्वरूप भेंट किये जिससे कवि को भी बड़ी ही आत्म सन्तुष्टि हुई.' महाकवि रइधू के त्याग, तपस्या एवं साहित्य-साधना से उनके समकालीन ग्वालियर नरेश डूंगरसिंह एवं उनके पुत्र राजा कीतिसिंह भी बहुत ही अधिक प्रभावित थे. डूंगरसिंह ने तो कवि को राजमहल में बैठकर ही साहित्य-साधना करने का निवेदन किया था. जिसे कवि ने स्वयं ही इस प्रकार व्यक्त किया है :
गोवग्गिरि दुग्गमि णिवसंतउ बहुसुहेण तहिं ।।
पणमंतउ गुरुपाय पायडंतु जिणसुत्तु महि । -सम्मइ० ११३।६-१० रइधू-साहित्य का पारायण करने से विदित होता है कि वे आदिनाथ प्रभु के परम भक्त थे, किन्तु उनके मन में आदिनाथ प्रभु के प्रति जिस प्रकार की कल्पना थी, तदनुरूप कोई भी प्रतिबिम्ब उनके आसपास न था. तब उनके मन में यह इच्छा जागृत हुई कि ग्वालियर-दुर्ग में ही उसकी एक विशाल मूत्ति का निर्माण हो. यह बात राजा डूंगरसिंह तथा वहाँ के अन्य लोगों के कानों में पहुँची ही थी कि वह कार्य ही प्रारम्भ हो गया. फिर वह मूत्ति मामूली नहीं बनी. महाराज डूंगरसिंह ने दूर-दूर से चतुर कलाकारों को बुलाकर ५७ फीट ऊँची ऐसी भव्य आदिनाथ की प्रतिमा का निर्माण करा दिया जो दक्षिण भारत के गोम्मटेश्वर का स्मरण कराती है. उक्त मूत्ति के बाद ही मूर्तिकला का कार्य समाप्त नहीं हो गया. तत्पश्चात् ही योजना का पुनविस्तार हुआ तथा राजा डूंगरसिंह के जीवनपर्यन्त तथा उनके बाद उनके पुत्र राजा कीतिसिंह के राज्य-काल तक कुल लगातार तैतीस वर्षों तक (वि० सं० १४६७-१५३० तक) यह कार्य चलता रहा जिसमें अगणित जैन-मूत्तियों का निर्माण हुआ. कवि ने लिखा है :
अगणिय प्रणपडिम को लक्खइ, सुरगुरु ताह गणण जइ अक्खह। -सम्मत० १।१३।५ उक्त प्रतिमाओं में से आदिनाथ की मूत्ति की प्रतिष्ठा स्वयं कवि रइधू ने ही की थी. इसी से यह भी विदित होता है कि वे प्रतिष्ठाचार्य भी थे. मूत्ति लेख निम्न प्रकार है'संवत् १४६७ वर्षे वैशाख........७ शुक्ले पुनर्वसुनक्षत्रे श्री गोपाचल दुर्गे महाराजाधिराज राजा श्री डुंग (रसिंह) राज्य संवर्तमाने श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ० गुणकीत्ति देवाः तत्प? भ० यशः कीत्ति देवाः प्रतिष्ठाचार्य पण्डित रइधू तेषां आम्नाये अग्रोतवंशे गोयल गोत्रे साधु राजा डूंगरसिंह एवं कीतिसिंह के राज्यकाल में निर्मित उक्त मूत्तियों ने इतिहास एवं कला के क्षेत्र में जैसा अद्भुत कार्य किया, वह अनूठा है. मध्यभारत का १४-१५ वीं सदी का जीता-जागता इतिहास इन मूत्तियों की आकृतियों से स्पष्ट झाँकता प्रतीत होता है. तत्कालीन मालव-जनपद की राजनैतिक आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास की स्वर्णमयी रेखाएँ इन मूर्तिलेखों में विद्यमान हैं. अपनी विशिष्ट कला के कारण सदियों से इन मूत्तियों ने देशी-विदेशी सभी कलाकारों एवं पर्यटकों को आकर्षित किया है. सम्राट बाबर, फादर माण्सेराट, जनरल-कनिंघम, जेम्स फर्ग्युसन, केमरेश, एवं श्री एम० बी० गर्दे, डा० रायचौधरी, राजेन्द्रलाल मित्रा, हरिहरनिवास द्विवेदी प्रभृति
१. देखिये, पासणाह० १४१०१-८. २. देखिये--भट्टारक सम्प्रदाय लेखाङ्क ५६० पृष्ठ संख्या २१८,
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